जब भी कोई सरकार सत्ता में आती है वह कोई न कोई नयी नीति लागू करती है। इनमें से कुछ नीतियां बहुत कारगर और जनहितैषी सिद्ध होती हैं तथा बाद में धीरे-धीरे सरकारी दफ्तरों में बैठे नौकरशाह और बाबू तथा सफेदपोश दलाल उनका दुरुपयोग करना शुरु कर देते हैं। आजाद भारत में जब-जब भी सरकारें बदलीं या उनके नेता बदले उन्होंने समय के साथ नियम और नीतियां भी बदलीं। यह बदलाव जरुरी भी होता है और कई बार चुनाव जीतने के लिए हमारे देश के नेता कुछ राजनीतिक दांव भी खेलते रहते हैं। ऐसे में कभी जरुरी चीजें भी नहीं बदली जातीं और कभी बिना जरुरत के काम भी कर दिये जाते हैं।
केन्द्र में सत्ता परिवर्तन तो हुआ ही है लेकिन रिकार्ड बहुमत के साथ हुआ है। साथ ही प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के प्रमुख पद पर भी दोनों चेहरे पहली बार विराजमान हुए हैं। उन्होंने पार्टी के सबसे तजुर्बेकार चेहरों को नेपथ्य में धकेलकर यह संदेश दे दिया है कि इस बार आजाद भारत में जन्मे नेताओं की पीढ़ी देश को अपने ढंग से चलायेगी। अटल, आडवाणी और जोशी को एक-एक कर सत्ता से अलग कर देना तथा राजनाथ सिंह के अधिकार भी धीरे-धीरे बहुत सीमित कर देने से स्पष्ट हो गया है कि पार्टी पर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का वर्चस्व कायम हो चुका है जिसकी कमान संघ मुख्यालय के हाथ में है। इससे यह भी स्पष्ट है कि संघ धीरे-धीरे उन सभी नेताओं को ठिकाने लगायेगा या शक्तिहीन कर देगा जो चुनाव से पूर्व लालकृष्ण आडवाणी का प्रत्यक्ष या परोक्ष पक्ष ले रहे थे। यह सभी जानते हैं कि संघ कभी सीधा हमला नहीं करता। वह कूटनीति का माहिर खिलाड़ी है। उसने वरुण गांधी को संगठन में स्थान न देकर मेनका गांधी को इशारा दिया है। यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह जैसे लोगों को भी संघ की शक्ति का अहसास हो चुका होगा। साथ ही उत्तर प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ता आजकल उसे अच्छी तरह महसूस कर रहे हैं। यह बदलाव पार्टी और संघ का आंतरिक मामला है लेकिन इस समय प्रधानमंत्री ने जन-धन योजना के नाम से उन गरीब लोगों के बैंकों में खाते खुलवाने शुरु किये हैं जिनके खाते नहीं हैं। ये बिना पैसे के खाते होंगे। इससे भारत के हर परिवार का व्यक्ति यह कह सकेगा कि उसका बैंक में खाता है। यह दीगर बात है कि उसके खाते में एक फूटी कौड़ी नहीं है। उसके पास रोजगार नहीं तथा खाने को पर्याप्त भोजन नहीं, रहने को मकान नहीं।
जिन गरीबों को अच्छे दिन दिखाने के नाम पर यह योजना चलाई गयी है कुछ बड़े उद्योगपतियों को प्रधानमंत्री की वाहवाही करने के नाम पर कई करोड़ रुपये सरकार ने विज्ञापनों के नाम पर खर्च कर दिये। बड़े-बड़े अखबारों के पन्नों पर देशभर में केन्द्र सरकार ने इस योजना के विज्ञापन छपवा कर करोड़ों रुपये खर्च किये। ये सभी अखबार बड़े धन्ना सेठों के हैं जो आयेदिन मोदी सरकार का गुणगान कर रहे हैं। यदि केन्द्र सरकार गरीब हितैषी होती तो यह धन गरीबों का खाता खुलवाने में भी दे सकती थी।
गरीबों के लिए बनी जन-धन योजना के शुरु होते ही जिसमें अमीर लाखों ले गये और गरीबों को एक भी पैसा नहीं मिला तो इसका आगे-आगे क्या हश्र होगा? क्या प्रचार और दलाली में ही तो नहीं चली जायेगी यह सारी योजना?
-जी.एस. चाहल
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केन्द्र में सत्ता परिवर्तन तो हुआ ही है लेकिन रिकार्ड बहुमत के साथ हुआ है। साथ ही प्रधानमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के प्रमुख पद पर भी दोनों चेहरे पहली बार विराजमान हुए हैं। उन्होंने पार्टी के सबसे तजुर्बेकार चेहरों को नेपथ्य में धकेलकर यह संदेश दे दिया है कि इस बार आजाद भारत में जन्मे नेताओं की पीढ़ी देश को अपने ढंग से चलायेगी। अटल, आडवाणी और जोशी को एक-एक कर सत्ता से अलग कर देना तथा राजनाथ सिंह के अधिकार भी धीरे-धीरे बहुत सीमित कर देने से स्पष्ट हो गया है कि पार्टी पर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का वर्चस्व कायम हो चुका है जिसकी कमान संघ मुख्यालय के हाथ में है। इससे यह भी स्पष्ट है कि संघ धीरे-धीरे उन सभी नेताओं को ठिकाने लगायेगा या शक्तिहीन कर देगा जो चुनाव से पूर्व लालकृष्ण आडवाणी का प्रत्यक्ष या परोक्ष पक्ष ले रहे थे। यह सभी जानते हैं कि संघ कभी सीधा हमला नहीं करता। वह कूटनीति का माहिर खिलाड़ी है। उसने वरुण गांधी को संगठन में स्थान न देकर मेनका गांधी को इशारा दिया है। यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह जैसे लोगों को भी संघ की शक्ति का अहसास हो चुका होगा। साथ ही उत्तर प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ता आजकल उसे अच्छी तरह महसूस कर रहे हैं। यह बदलाव पार्टी और संघ का आंतरिक मामला है लेकिन इस समय प्रधानमंत्री ने जन-धन योजना के नाम से उन गरीब लोगों के बैंकों में खाते खुलवाने शुरु किये हैं जिनके खाते नहीं हैं। ये बिना पैसे के खाते होंगे। इससे भारत के हर परिवार का व्यक्ति यह कह सकेगा कि उसका बैंक में खाता है। यह दीगर बात है कि उसके खाते में एक फूटी कौड़ी नहीं है। उसके पास रोजगार नहीं तथा खाने को पर्याप्त भोजन नहीं, रहने को मकान नहीं।
जिन गरीबों को अच्छे दिन दिखाने के नाम पर यह योजना चलाई गयी है कुछ बड़े उद्योगपतियों को प्रधानमंत्री की वाहवाही करने के नाम पर कई करोड़ रुपये सरकार ने विज्ञापनों के नाम पर खर्च कर दिये। बड़े-बड़े अखबारों के पन्नों पर देशभर में केन्द्र सरकार ने इस योजना के विज्ञापन छपवा कर करोड़ों रुपये खर्च किये। ये सभी अखबार बड़े धन्ना सेठों के हैं जो आयेदिन मोदी सरकार का गुणगान कर रहे हैं। यदि केन्द्र सरकार गरीब हितैषी होती तो यह धन गरीबों का खाता खुलवाने में भी दे सकती थी।
गरीबों के लिए बनी जन-धन योजना के शुरु होते ही जिसमें अमीर लाखों ले गये और गरीबों को एक भी पैसा नहीं मिला तो इसका आगे-आगे क्या हश्र होगा? क्या प्रचार और दलाली में ही तो नहीं चली जायेगी यह सारी योजना?
-जी.एस. चाहल
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