जाट हमेशा लोकातंत्रिक प्रणाली का पक्षधर रहा है तथा जियो और जीने दो के सिद्धांत पर जीवन यापन करता है। अन्याय को बर्दाश्त नहीं करता इसके लिए वह अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है। इस बात का इतिहास गवाह है। यही कारण है कि उसने कभी भी लोभ, लालच या दबाव में सत्ता हासिल करने का प्रयास नहीं किया, इससे बेहतर वह हमेशा सत्ताखोरों के खिलाफ संघर्ष करता रहा। आज भी देश के अन्न भंडार में सबसे बड़ा योगदान जाट समुदाय का ही है। सीमा पर इस समुदाय के जवान देश की सुरक्षा में सबसे आगे रहे हैं। खेलों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं सबसे अधिक पदक विजेता जाट ही हैं। जय जवान—जय किसान का नारा देकर इन्हें खुश कर दिया जाता है और जब भी इनके वाजिब हकों का नंबर आता है तभी इनके साथ भेदभाव बरता जाता है। आजादी दिलाने और आजादी के बाद भूखे मर रहे देश की भूख मिटाने में अहम भूमिका दिलाने वाली इस बहादुर, भोली—भाली तथा बेहद परिश्रमी जाति के साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया जाने का दुश्चक्र शुरु हो गया है। यह और भी खेदजनक है कि जिस भाजपा का लोकसभा चुनाव में जाटों ने दूसरे सभी वर्गों से अधिक प्रतिशत में समर्थन किया वही पार्टी सत्ता में आते ही जाटों के नाम से ही परहेज करती नजर आने लगी।
राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में जाट आबादी है। यहां यह जाति इतनी बड़ी संख्या में है कि वह किसी भी चुनाव को प्रभावित कर सकती है। यह भी सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनाव में जितनी भारी सफलता उसे जाट क्षेत्रों में मिली देश के दूसरे उन राज्यों में नहीं मिली जहां जाट लगभग शून्य थे। बंगाल, केरल, तमिलनाडु आदि उन सभी राज्यों में भाजपा को दूसरे दलों ने बुरी तरह पराजित किया जहां जाट थे ही नहीं। जाटों ने एकजुट होकर पूरे देश में पूरी तरह भाजपा का समर्थन किया। चौ. अजीत सिंह तथा चौ. राकेश टिकैत जैसे अपने उन जाति भाइयों को भी हरा दिया जो जाट और किसान नेता माने जाते थे। इसी से पता चल जाता है कि जाट जातिवादी नहीं बल्कि पक्के राष्ट्रवादी हैं। वे जन्मजात भोलापन की प्रवृत्ति में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के छद्म राष्ट्रवादी जुमलों और आश्वासनों के बहकावे में आ गये।
बात जाट की खोपड़ी में घुसने की है। एक बार समझ में आ गयी फिर पीछे हटने का नाम वह नहीं लेता। अब वह मोदी—शाह की जुगलबंदी की तान को समझ चुके तथा बहकावे में नहीं आयेंगे। चाहें कुछ भी हो।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्पन्न गन्ने और दुग्ध उत्पाद पर देश का पेट भरता है। यह क्षेत्र वैसे तो सभी बिरादरी के किसानों का है, लेकिन जाट किसानों की तादाद बाकी सबको मिलाकर भी उनसे ज्यादा है। यहां जो दूसरे किसान हैं उनमें और जाटों की समस्यायें एक जैसी हैं, अतः आपसी सद्भाव कायम है। परंतु आयेदिन नये—नये राजनैतिक षड़यंत्रों का सहारा लेकर जाटों को दूसरों से अलग करने के प्रयास किये जा रहे हैं। जिसे जाट सफल नहीं होने देंगे।
केन्द्र में मौजूदा सरकार आने से पूर्व राजस्थान, पंजाब, हरियाणा में जाट मुख्यमंत्री थे। हरियाणा में विधानसभा चुनाव से पूर्व ही अमित शाह के नेतृत्व में प्रचार कर दिया गया कि यहां गैर जाट मुख्यमंत्री बनायेंगे। इसी के साथ पंजाब में भी कोशिश की जाने लगी कि भाजपा को यहां भी अकाली दल से इसलिए अलग होना चाहिए ताकि गैर जाट मुख्यमंत्री बनाया जा सके। यही हुआ हरियाणा और राजस्थान में भाजपा आते ही जाट मुख्यमंत्री नहीं बनाये गये। पंजाब में अभी चुनाव होना है। जरुरत पड़ी तो वहां जाट—गैर जाट मुद्दा नहीं चला तो हिन्दु—सिख विवाद का प्रयास किया जा सकता है।
गन्ना भुगतान पर मौन, गेहूं आदि की खरीद पर पंजाब, हरियाणा और यूपी जाट बाहुल्य राज्यों में सरकारी तौल पाबंदी का निर्णय, धीरे—धीरे जाटों को कमजोर करने का प्रयास है। कई अन्य मामलों में भी जाटों के साथ भेदभाव का प्रयास किया जाने का पता चला है।
वैसे जाट सबकुछ समझ रहे हैं। वे एकजुट होने शुरु हो गये हैं। अभी भूमि अधिग्रहण बिल प्रकरण चल रहा है। इसी के साथ दिल्ली के चारों ओर बसे जाट लामबंद हो रहे हैं। शीघ्र ही रालोद, भाकियू, जाट आरक्षण संघर्ष समिति तथा जाट महासभा एकजुट होकर जाट हितों के लिए सड़क पर उतरेंगे। यह वे अच्छी तरह समझ चुके कि वह भाजपा ही उनकी सबसे बड़ी विरोधी है जिसे उन्होंने अपना समझकर सबकुछ दांव पर लगा दिया था।
-जी.एस. चाहल.
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राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में जाट आबादी है। यहां यह जाति इतनी बड़ी संख्या में है कि वह किसी भी चुनाव को प्रभावित कर सकती है। यह भी सभी जानते हैं कि लोकसभा चुनाव में जितनी भारी सफलता उसे जाट क्षेत्रों में मिली देश के दूसरे उन राज्यों में नहीं मिली जहां जाट लगभग शून्य थे। बंगाल, केरल, तमिलनाडु आदि उन सभी राज्यों में भाजपा को दूसरे दलों ने बुरी तरह पराजित किया जहां जाट थे ही नहीं। जाटों ने एकजुट होकर पूरे देश में पूरी तरह भाजपा का समर्थन किया। चौ. अजीत सिंह तथा चौ. राकेश टिकैत जैसे अपने उन जाति भाइयों को भी हरा दिया जो जाट और किसान नेता माने जाते थे। इसी से पता चल जाता है कि जाट जातिवादी नहीं बल्कि पक्के राष्ट्रवादी हैं। वे जन्मजात भोलापन की प्रवृत्ति में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के छद्म राष्ट्रवादी जुमलों और आश्वासनों के बहकावे में आ गये।
बात जाट की खोपड़ी में घुसने की है। एक बार समझ में आ गयी फिर पीछे हटने का नाम वह नहीं लेता। अब वह मोदी—शाह की जुगलबंदी की तान को समझ चुके तथा बहकावे में नहीं आयेंगे। चाहें कुछ भी हो।
पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्पन्न गन्ने और दुग्ध उत्पाद पर देश का पेट भरता है। यह क्षेत्र वैसे तो सभी बिरादरी के किसानों का है, लेकिन जाट किसानों की तादाद बाकी सबको मिलाकर भी उनसे ज्यादा है। यहां जो दूसरे किसान हैं उनमें और जाटों की समस्यायें एक जैसी हैं, अतः आपसी सद्भाव कायम है। परंतु आयेदिन नये—नये राजनैतिक षड़यंत्रों का सहारा लेकर जाटों को दूसरों से अलग करने के प्रयास किये जा रहे हैं। जिसे जाट सफल नहीं होने देंगे।
केन्द्र में मौजूदा सरकार आने से पूर्व राजस्थान, पंजाब, हरियाणा में जाट मुख्यमंत्री थे। हरियाणा में विधानसभा चुनाव से पूर्व ही अमित शाह के नेतृत्व में प्रचार कर दिया गया कि यहां गैर जाट मुख्यमंत्री बनायेंगे। इसी के साथ पंजाब में भी कोशिश की जाने लगी कि भाजपा को यहां भी अकाली दल से इसलिए अलग होना चाहिए ताकि गैर जाट मुख्यमंत्री बनाया जा सके। यही हुआ हरियाणा और राजस्थान में भाजपा आते ही जाट मुख्यमंत्री नहीं बनाये गये। पंजाब में अभी चुनाव होना है। जरुरत पड़ी तो वहां जाट—गैर जाट मुद्दा नहीं चला तो हिन्दु—सिख विवाद का प्रयास किया जा सकता है।
गन्ना भुगतान पर मौन, गेहूं आदि की खरीद पर पंजाब, हरियाणा और यूपी जाट बाहुल्य राज्यों में सरकारी तौल पाबंदी का निर्णय, धीरे—धीरे जाटों को कमजोर करने का प्रयास है। कई अन्य मामलों में भी जाटों के साथ भेदभाव का प्रयास किया जाने का पता चला है।
वैसे जाट सबकुछ समझ रहे हैं। वे एकजुट होने शुरु हो गये हैं। अभी भूमि अधिग्रहण बिल प्रकरण चल रहा है। इसी के साथ दिल्ली के चारों ओर बसे जाट लामबंद हो रहे हैं। शीघ्र ही रालोद, भाकियू, जाट आरक्षण संघर्ष समिति तथा जाट महासभा एकजुट होकर जाट हितों के लिए सड़क पर उतरेंगे। यह वे अच्छी तरह समझ चुके कि वह भाजपा ही उनकी सबसे बड़ी विरोधी है जिसे उन्होंने अपना समझकर सबकुछ दांव पर लगा दिया था।
-जी.एस. चाहल.
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