वक्त ने भर दिये हैं घाव मेरे, जिक्र करके ना दिल जलाओ मेरा



gs chahal gajraula times editor
1984 के सिख विरोधी दंगों को बीते तीन दशक गुजर गये। यह एक लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश में एक भयंकर भीषण तथा अद्भुत नरसंहार था जिसमें जनता के चुने हुए प्रतिनिधि कानून व्यवस्था के पैरोकार पुलिस वाले और कई धार्मिक कट्टरवादी शामिल थे। इन लोगों की छत्रछाया में देश की राजधानी समेत देश के कई शहरों में बहुत ही बहशियाने ढंग से अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का पांच दिन तक लगातार कत्लेआम किया जाता रहा। उनकी संपत्तियां लूटी गयीं और उन्हें आग के हवाले किया गया।

इससे भी खतरनाक यह बात है कि तीस वर्ष बीतने के बाद भी हजारों लोगों के कातिलों में से भारत का कानून और न्यायालय एक भी व्यक्ति को सजा नहीं दे सके। क्या यह हमारी न्याय व्यवस्था का मजाक नहीं है? यदि ऐसे वीभत्स कांडों के पीड़ितों में से कोई व्यक्ति कानून हाथ में लेकर स्वयं न्याय पाने के लिए किसी गैरकानूनी मार्ग पर निकल जाये तो उसका दायित्व किस पर होगा? यह सवाल बहुत गंभीर है और न्याय के हकदार लोग मौजूदा कानून व्यवस्था के संचालकों से इसका जबाव पाने के हकदार हैं।

पीड़ित समुदाय को आश्वासन बहुत मिले, लेकिन दोषियों को दंडित करने का कोई भी प्रयास नहीं किया गया। वोटों की राजनीति करने वाले कांग्रेस और भाजपा अदल—बदल कर सत्ता में आये तथा पीड़ितों को न्याय की दिलासा तथा झूठे आश्वासन दिये जाते रहे।

लंबा समय बीतने पर इस तरह की घटनाओं का दर्द कम हो जाता है तथा लोग उसे भूलने लगते हैं। यह सर्वविदित है कि सिख हमलावर समुदाय के लोगों से संख्या में बहुत कम हैं। सत्ता में भी उनका कोई दबदबा नहीं। मीडिया में भी उस वर्ग का बहुमत है जिनकी संख्या देश में सबसे अधिक है। पुलिस और प्रशासन में भी वे नगण्य हैं। न्यायपालिका तक भी उनकी आवाज इसलिए नहीं पहुंचती क्योंकि वहां तक आवश्यक प्रमाण पहुंचाने वाली पुलिस दंगों के दौरान स्वयं हमलावरों के साथ थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा के लिए पहुंचे पीड़ितों की स्वयं पुलिस ने थानों में हत्या कर दी।

इन सबके बावजूद पीड़ितों को चुनावों के दौरान न्याय दिलाने की बात की जाती है। भारतीय जनता पार्टी के नेता हर लोकसभा और विधानसभा के दौरान दिल्ली में यह शिगूफा छोड़ते हैं कि पीड़ितों को न्याय दिलायेंगे। इस बार भी यह मुद्दा गरमाने का प्रयास किया गया।

सिख अच्छी तरह जानते हैं कि स्वर्ण मंदिर पर सेना भिजवाने और 1984 में दिल्ली और कानपुर में दंगों को भड़काने में भाजपा से जुड़े कट्टर हिन्दुवादी तत्व तथा कांग्रेसी हिन्दुवादी तत्वों की मिलीजुली साजिश थी। इन दोनों स्थानों पर हमेशा भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन मजबूत रहे हैं। ये अदल—बदलकर बारी—बारी से दोनों दलों में आते—जाते रहते हैं। आज भी यही स्थिति है। यही कारण रहा है कि भाजपा के कई बार सत्ता में आने के बावजूद इस दिशा में कुछ नहीं हुआ।

सिख जान चुके कि इस मामले में कुछ नहीं होने वाला इसलिए वे अब इस त्रासदी को भूल जाना चाहते हैं। वे अपने इतिहास को जानते हैं। उन्हें बार—बार इस तरह के भयंकर कष्टों को झेलना पड़ा है। वे हर संकट के बाद और भी मजबूत होकर खड़े हुए हैं। वे अपना भविष्य खुद संवारते हैं तथा आज भी उनके द्वारों पर न जाने कितने भूखे भोजन करते देखे जा सकते हैं। कोई भी सिख न तो भीख मांगता है और न ही भूख से मरता है। वह अपने परिश्रम और पुरुषार्थ के बल पर अपना, अपने देश और समाज का भरण—पोषण करने की क्षमता रखता है।

सिख चाहते हैं कि भारत के नेता उन्हें क्षमा करें तथा जिन जख्मों को वे ठंडा करना चाहते हैं, उन्हें बार—बार दंगों का हवाला देकर कुरेदने का प्रयास न करें।

हमें किसी हिदायत की आवश्यकता नहीं। हम तीस साल पहले हुए घावों की पीड़ा भूलना चाहते हैं। परंतु जैसे ही यह दर्द भूलते हैं, फिर चुनावी मौसम में हमारे नेता हमारे घाव हरे कर देते हैं। ऊपर वाले के नाम पर ही सही हमारे भरे जख्मों को कुरेद कर दर्द न बढ़ायें।

-जी.एस. चाहल

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