उत्तर प्रदेश में बसपा हो सकती है सपा का विकल्प

उत्तर प्रदेश में बसपा हो सकती है सपा का विकल्प

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में एतिहासिक विजय हासिल कर केन्द्र में एक वर्ष पूर्व भारी बहुमत से सत्ता में आयी मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा यहां के विधानसभा चुनावों में भी विजय की अभिलाषा रखती है। वह अक्टूबर तक होने वाले बिहार के चुनावों पर ज्यादा जोर दे रही है फिर भी दोनों राज्यों के जातीय समीकरणों में कई तरह की समानताओं के कारण उसे एक सामंजस्यपूर्ण रणनीति को बनाये रखने का प्रयास करना पड़ रहा है। भाजपा को दोनों राज्यों में दलित और पिछड़े वर्गों के मतों को लुभाने का प्रबंध करना पड़ रहा है। इसके बगैर उसे दोनों में से किसी भी राज्य में सफलता नहीं मिल सकती।

उत्तर प्रदेश की सपा सरकार जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है। सपा के विपक्षियों की यह दलील कि सपा के शासन में गुंडाराज कायम है। भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता बढ़ी है, बहुत कुछ सटीक दिखाई दे रही है। किसानों, मजदूरों और बेरोजगार नवयुवकों की दिक्कतों में कमी आने के बावजूद इजाफा हुआ है। कानून व्यवस्था को पूरी तरह ठीक नहीं कहा जा सकता है। सरकारी विभागों में नीचे से लेकर ऊपर तक भ्रष्टाचार व्याप्त है तथा पीड़ित लोगों की कोई सुनवाई नहीं हो रही। सत्ताधारी दल के शक्तिशाली सफेदपोश नेता प्रशासन पर पूरा दबाव बनाये हुए हैं जिसके कारण जनता के साथ भेदभाव के समाचार आयेदिन मिल रहे हैं। यही हालत सूबे की लोकसभा चुनाव से पूर्व थी। दुखी जनता ने भाजपा की खूबियों के बजाय सपा के खिलाफ मतदान कर भाजपा को रिकार्ड मतों से विजयी बनाया था। इसमें पिछड़े और दलित वर्गों का सबसे बड़ा योगदान था। यहां के किसान और मजदूर इसी वर्ग से आते हैं जो उत्तर प्रदेश की साठ फीसदी आबादी के आसपास बैठते हैं। इस बार भी इन्हीं लोगों के हाथ में सत्ता की चाबी रहेगी। यह तबका आज भी सपा से उतना ही नाराज है जितना लोकसभा चुनावों के मौके पर था। अब सवाल उठता है कि क्या यह वर्ग भाजपा से खुश है?

जो लोग बड़े-बड़े शहरों के  वातानुकूलित भवनों में रहकर जनता के अच्छे दिन होने की बातें कर रहे हैं उन्हें उत्तर प्रदेश की जमीनी हकीकत का पता नहीं है। केन्द्र और राज्य सरकार की नीतियों के कारण एक साल में ही राज्य के आम आदमी की आर्थिक हालत डांवाडोल हो गयी है। किसान और गरीब विरोधी नीतियों को एक-एक कर लाया जा रहा है। ग्रामीण आबादी की जेब खाली होने के कारण वह बाजार की ओर जाने का साहस नहीं जुटा पा रहा। इससे व्यापारी वर्ग हाथ पर हाथ धरे बैठा है। जिसका असर उघोगों पर भी पड़ रहा है। आंकड़ों की बाजीगरी कर कुछ भी कहा जाये लेकिन औघोगिक इकाईयों के उत्पादों की बिक्री घटी है। इसी के कारण शेयर बाजार भी नये वित्त वर्ष की शुरुआत से लगातार धाराशायी होता जा रहा है।

लंबी विवेचना की जरुरत नहीं बल्कि चुनाव से पूर्व हसीन सपने बेचकर सत्ता खरीदने वाली केन्द्र की भाजपा सरकार से उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक दोनों ही तबके खुश नहीं हैं। वे जितने नाराज सपा से थे, आज भाजपा से भी उसी तरह खफा हैं। ऐसे में यदि भाजपा स्वयं को राज्य में सपा का विकल्प मानकर चल रही है तो उसकी बड़ी भूल है। अब सवाल यह उठता है कि यदि सपा और भाजपा दोनों से प्रदेश की जनता नाराज है तो फिर वह किस दल के पक्ष में है? क्या वह बसपा को सत्ता में लाना चाहती है या कांग्रेस को विकल्प के तौर पर अपनाने को तैयार है? अथवा बिहार की तरह भाजपा के खिलाफ यहां भी कोई गठबंधन अस्तित्व में आ सकता है? मेरे हिसाब से यहां सपा और बसपा दो बड़ी ताकतें अकेले ही मैदान में आयेंगी। दोनों को ही चुनावी विजय पर भरोसा है। ऐसे में कांग्रेस, रालोद और वामपंथी यदि एक मंच पर आते हैं तब भी समीकरणों पर खास प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

भाजपा और सपा की कार्यशैली के खिलाफ हो चुके दलित, जाट तथा पिछड़ों के वोटों का झुकाव बसपा की ओर होता जा रहा है। वरिष्ठ मंत्री मो. आजम खां के बढ़ते प्रभाव के कारण सपा के अधिकांश मुस्लिम नेता भी सपा में घुटन महसूस कर रहे हैं। ऐसे में अल्पसंख्यक मतों का एक बड़ा गुट भी इस बार बसपा की ओर झुकता जा रहा है। नसीमुद्दीन सिद्दीकी मुस्लिम वर्ग को बसपा की ओर मोड़ने को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगातार बैठकें कर रहे हैं। जाट मतदाता भाजपा से सबसे अधिक नाराज हैं। इस सरकार में सबसे अधिक उपेक्षित यही वर्ग है।

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भाजपा के सत्ता में आते ही स्वयं नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा में गैर जाट को मुख्यमंत्री बनाने की बात की और ऐसा ही किया। पहले दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश में भी जाट मुख्यमंत्री रह चुके हैं। यह पहली बार है कि भाजपा ने इन सभी राज्यों का नेतृत्व गैर जाटों को सौंपा है। भूमि अधिग्रहण बिल ने तो जाटों को सबसे अधिक नाराज किया है। वन रैंक वन पेंशन वाली घोषणा से पीछे हटने से भी जाट समाज भाजपा से बेहद नाराज है। क्योंकि सैनिकों में इस जाति के काफी जवान हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बिरादरी के पास निर्णायक मत हैं। यह वर्ग सपा से भी नाराज है या यह भी कह सकते हैं कि सपा शासन में जाट और जाटव स्वयं को सबसे अधिक उपेक्षित मान रहे हैं।

मायावती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-जाटव समीकरण को एकजुट करने का प्रयास कर लें तो यह आसान है। इसके सहारे वे भाजपा और सपा दोनों को धराशायी करने में सफलता प्राप्त कर सकती हैं। ऐसे में 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा ही सपा का विकल्प बनकर सत्ता में लौट सकती है। भाजपा जाट और दलित मतदाताओं को रिझाने का हर हथकंडा इस्तेमाल कर रही है। बसपा भी इसे समझ रही होगी लेकिन वह दलित उत्पीड़न के मामलों में उतनी मुखर नहीं हो पा रहीं जितनी उन्हें होना चाहिए।

कांग्रेस भी चुनावी मौसम के साथ इन मतों को हड़पने या इनमें सेंधमारी का प्रयास करेगी लेकिन उसे इसमें वांछित सफलता मिलने की उम्मीद नहीं लगती। रालोद से जाट मतों का लगभग मोहभंग हो चुका है उनके लिए ऐसे में बसपा से बेहतर दूसरा विकल्प दिखाई नहीं देता।

-जी.एस. चाहल.