महीनों से भारी भरकम तैयारियों और भीषण शोर शराबे के बावजूद 21 जून को प्रधानमंत्री राजपथ पर दिल्ली में मुश्किल से 38000 लोगों को योगभ्यास के लिए तैयार कर पाये। जबकि दिल्ली में भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठनों के सदस्यों की संख्या लाखों में होगी। तो क्या इसे यह नहीं मान लिया जाये कि दिल्ली की भगवा बिग्रेड मोदी की योग राजनीति के खिलाफ हैं या दिल्ली ने मोदी को पूरी तरह नकार दिया है?
इस कार्यक्रम में भीड़ जुटाने के लिए और मोदी को महिमा मंडित करने के लिए सरकारी खजाने का करोड़ों रुपया बड़े औद्योगिक घरानों के मीडिया में विज्ञापनों के जरिये पानी की तरह बहाया गया। उसका लाभ जनता को बहकाने के लिए किया जा रहा है। 38000 लोगों को इतने धन खर्च करने और प्रयास के उपरांत उस स्थान पर एकत्र किया जाना एतिहासिक बताया जा रहा है जहां देश की राजधानी का हृदय स्थल है और वहां निशवासर देशी-विदेशी आगंतुकों के साथ राजधानी के हजारों लोगों का नियमित आवागमन तथा जमावड़ा रहता है। पीएमओ के अधिकारी मामूली आदेश पर इससे अधिक लोगों को यूं ही एकत्र कर सकते हैं। भाजपा अथवा किसी भी दल के कार्यकर्ता दिल्ली जैसी राष्ट्रीय राजधानी में ऐसे स्थान पर भारी संख्या में बुलाये जा सकते हैं। फिर प्रधानमंत्री और पूरे शासन के प्रचार के प्रयास पर यदि 38 हजार लोग योग करने चले आये तो इससे दिल्ली या देश का क्या उद्धार हो गया?
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भाजपा के सबसे बड़े नेता अमित शाह ने योग दिवस पर पटना में मौजूद होते हुए भाग नहीं लिया। अमित शाह पार्टी अध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रधानमंत्री के राजनीतिक जीवन के सहयात्री हैं। भले ही प्रधानमंत्री योग करने में सक्षम हों और वे दूसरों को भी योग के प्रति प्रेरित कर रहे हों लेकिन वे अपने सबसे विश्वसनीय तथा करीबी अमित शाह को योग के प्रति आकर्षित करने में सफल नहीं हो सके। यह केवल योग दिवस से शाह का किनारा करने से ही पता नहीं चलता बल्कि मधुमेह तथा मोटापा जैसे बीमारी इस बात का प्रमाण है कि अमित शाह ने कभी योग नहीं किया। यदि वे योग करते तो ये रोग उनके पास तक नहीं फटक सकते थे। पहले प्रधानमंत्री अपने सबसे करीबी को योग के लिए तैयार करें। जब अमित शाह योग करने में सक्षम हो जायें तब उन्हें योग करते समय अपनी तरह टीवी पर लाइव कार्यक्रम में देश को दिखायें जिससे देशवासी भरोसा कर सकें कि भाजपा के सबसे बड़े नेता भी योगासन करना जानते हैं। वास्तव में योगाभ्यास की आवश्यकता मोटे पेट वालों को ही है। गरीबों में तो पहले ही ऊर्जा की कमी है। शरीर में मांस और रक्त कम है। कुपोषण के शिकार हैं। इसकी पूर्ति के लिए पैसा चाहिए। पैसा रोजगार से आयेगा। साथ ही ऐसे रोजगार से जिसमें काम के अनुपात में मजदूरी मिले। उसके बाद तन और मन स्वयं ही स्वस्थ हो जायेंगे, न रोग होगा न योग की जरुरत होगी। योग तो सबसे अधिक उनकी जरुरत है जो शरीर को बिना हिलाये दूसरों की कमायी हड़पते हैं, यही विभिन्न रोगों का कारण बनता है।
प्रधानमंत्री जी यदि वास्तव में भारत की खुशहाली चाहते हैं तो वे तीस-चालीस महिलाओं के आगे बैठकर यौगिक मुद्रा में फोटो खिंचवाने के बजाय देश की दरिद्रता मिटाने के ठोस उपाय करें।
जिस योग के महत्व की बात भाजपा की भगवा ब्रिगेड कर रही है या तो उस योग को करने वाले संत योगी नहीं या योग मानसिक शांति और संयम प्रदान नहीं करता और यह योग भोग की ओर भागता है। मसलन भाजपा में योगियों और साधु सन्यासियों की अच्छी तदाद है। ये सभी मंत्री पद, सुख सुविधा और सांसारिक भोग पद लोलुपता में गृहस्थों से किसी भी तरह पीछे नहीं। बल्कि भाषायी मार्यादाओं की सीमायें ये बार-बार लांघ जाते हैं। दूसरों को प्राकृतिक जीवन जीने की सलाह देने वाले ये सन्यासी और योगी, सांसद, विधायक और मंत्री बनने के बाद विलासितापूर्ण, अत्याधुनिक जीवन पद्धति और वातावरण में रहते हैं। दूसरों को योग, अपने लिए भोग यही है हमारे देश की राजनीति का संयोग।
-जी.एस. चाहल.