औद्योगिक नगर के नाम पर पहचान बनाने वाला उत्तर प्रदेश का यह छोटा सा शहर जिन उद्योगों के सहारे क्षेत्रीय विकास के सपने देख रहा था, वह औद्योगीकरण के तीस दशकों में पूरे होने के बजाय टूटते नजर आ रहे हैं। जिन शिक्षित नवयुवकों ने इसे अपने रोजगार का साधन मानने की भूल की थी, वे बेरोजगारी का जीवन जीते आज बुढ़ापे की दहलीज पर हैं तथा उनकी शिक्षित और प्रशिक्षित संतानें यहां किसी रोजगार की उम्मीद से कोसों दूर हैं। यह दीगर बात है, चंद लोग ठेकेदारों के शोषण का शिकार होने की मजदूरी प्रथा को जरुर जीवित रखने को अभिशप्त हैं। परोक्ष रुप से कई प्रकार के जिन रोजगारों का सृजन यहां हुआ है उनमें भी बाहरी लोगों की घुसपैठ शुरु हो चुकी हैं। स्थानीय लोगों को सबसे बड़ा तोहफा प्रदूषण का मिला है।
यहां की सबसे बड़ी तथा सबसे अधिक प्रदूषण वाहक औद्योगिक इकाई जुबिलेंट लाइफ साइंसेस लि. ने प्राकृतिक संसाधन, जिनमें भूजल है सबसे अधिक दोहन किया है, जो आज भी जारी है। यह इकाई शुद्ध भूजल का भारी मात्रा में रात-दिन दोहन कर, रासायनिक परिवर्तन और कैमिकल उत्पादों के अवशेष के रुप में बेहद प्रदूषित कर बाहर निकालती रहती है। जो हर प्रकार से मानव, पशु-पक्षी तथा वनस्पति और फसलों के लिए खतरनाक है जिसके दुष्परिणाम यहां सबके सामने हैं। इसके बावजूद कई संस्थायें इस कंपनी को बार-बार सबसे बेहतर प्रदूषण रहित तथा सुरक्षित इकाई के प्रमाण-पत्र जारी करती रहती हैं।
तीस दशकों से खतरनाक रासायनिक उत्पादों को तैयार करने वाली इस इकाई के कलपुर्जे तथा सारी मशीनरी अर्थात् प्लांट बूढ़े हो चुके। बार-बार मरम्मत और पेंटिंग के सहारे बूढ़ी पाइप लाईनों, ड्रमों तथा विशाल टैंकरों तक को इस्तेमाल किया जा रहा है। हाल ही में कई बड़ी दुघर्टनायें हो चुकी हैं जिसमें जानमाल का सही आकलन कंपनी के अधिकारी नहीं होने देना चाहते। या जान बूझकर छुपा रहे हैं। मौंतों और घायलों की संख्या को छुपाने का प्रयास ही प्रबंधतंत्र की नीयत की हकीकत का प्रमाण है।
प्लांटों में अच्छा खासा वेतन लेकर काम करने वाले कई लोग यहां की हालत को समझते हुए दूसरी जगह चले गये, चाहें वहां कम वेतन मिल रहा है। उनका कहना है कि जानबूझकर मौत के मुंह में जाना कौन सी समझदारी है।
बूढ़ी हो चुकी इस फैक्ट्री ने भले ही गजरौला के लोगों को वांछित रोजगार न दिये हों, नवयुवकों के सपनों को तोड़ा हो और प्रदूषण से बीमारियां प्रदान की हों लेकिन अब लोग पिछले दिनों हुए छोटे-बड़े हादसों से और भी बड़ी आशंका में जी रहे हैं कि पता नहीं यह ‘बूढ़ी डायन’ कहीं किसी बड़े हादसे को दावत न दे बैठे और गजरौला के लोगों को कहीं उसकी बड़ी कीमत न चुकानी पड़े?
फैक्ट्री के आसपास बसी पूरी आबादी हर समय खतरे के साये में है। प्रबंधतंत्र नगर वासियों ही नहीं बल्कि क्षेत्रवासियों को भी अपने कम्पनी के सुरक्षातंत्र की हकीकत से परिचित कराये और समय रहते बूढ़ी इकाई की बूढ़ी मशीनरी का नवीनीकरण कराये।
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-जी.एस. चाहल.
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