उत्तर प्रदेश के परिषदीय स्कूलों का शिक्षा सत्र शुरु होते ही विभागीय अधिकारी शिक्षकों को सरकार द्वारा चलाये जा रहे इन स्कूलों में छात्र संख्या बढ़ाने के आदेश देते हैं जिसमें रैलियों और घर-घर जाने तक के कार्यक्रम तय किये जाते हैं। अध्यापकों पर इसके लिए शासन का खास दबाव रहता है। फिर भी इन स्कूलों में छात्र संख्या नहीं बढ़ रही, बल्कि बहुत से स्कूलों में तो एक-दो बच्चे ही रह गये हैं। कई जगह फर्जी नामांकन कर छात्र संख्या बढ़ाई जा रही है। इन स्कूलों पर लंबी चौड़ी अधिकारियों की फौज लगी है जिनकी मोटी तनख्वाह और भारी-भरकम भत्ते तथा अन्य सुविधायें हैं।
मिड-डे मील के घोटालों के राज आयेदिन खुल रहे हैं। अब दूध वितरण का काम शुरु हो गया है। इसमें तो अच्छी गुंजाइश है। जहां बच्चे नहीं वहां बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी हैं। अध्यापकों को भी ठीक-ठाक वेतन मिल रहा है।
इन स्कूलों की शिक्षा का स्तर यदि बेहतर होता तो इन स्कूलों के अध्यापक, इस विभाग के अधिकारी और मध्यम दर्जे के लोग यहां अपने बच्चे पढ़ाने से न कतराते। यह जरुरी करना चाहिए कि सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को अपने बच्चे सरकारी या परिषदीय स्कूलों में पढ़ाने होंगे। शिक्षा विभाग वालों के बच्चों को तो दूसरी जगह स्थान ही नहीं मिलना चाहिए।
देखने में आया है कि सरकारी नौकरों जिनमें सरकारी अध्यापक भी हैं, कोई ऐसा बिरला महानुभाव होगा जिसने अपना बच्चा सरकारी स्कूलों में पढ़ाया होगा। यदि ये लोग अच्छी शिक्षा दे रहे हैं या इन स्कूलों का स्तर बेहतर है तो फिर अपने बच्चों को निजि स्कूलों में क्यों भेज रहे हैं। कोई नेता, विधायक, सांसद, या मंत्री अपने बच्चे परिषदीय स्कूलों में क्यों नहीं भेजता? दूसरों को इन स्कूलों में पढ़ाने को भाषण देते हैं। इन स्कूलों की व्यवस्था को सुधारना नहीं चाहते।
परिषदीय स्कूलों के अध्यापकों को जितना वेतन दिया जाता है निजि स्कूलों के अध्यापकों को उनसे बहुत कम वेतन मिलता है फिर भी वे बेहतर परिणाम देते हैं और परिश्रम से पढ़ाते हैं। यह दीगर बात है कि निजि संस्थायें अभिभावकों का शोषण करने में प्रतिस्पर्धा कर रही है जिसके समाधान भी जरुरी है।
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-जी.एस. चाहल.
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