बिहार में विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार तथा उसके विरोधी खेमे की रिकॉर्डतोड़ विजय के बाद चुनावी समीक्षा शुरु हो गयी है। समीक्षक अपने-अपने तर्क प्रस्तुत करने में लगे हैं। कारण कुछ भी हो दिल्ली की हार के बाद भाजपा की यह दूसरी बड़ी हार है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में यहां भाजपा ने चुनाव प्रचार में पूरी ताकत झोंक दी थी और विपक्ष के खिलाफ जितना भी झूठ-सच बोला जा सकता था, उसमें कोई कसर बाकी नहीं रहने दी। ऐसे में भाजपा की इस हार का ठीकरा मोदी-शाह की जोड़ी के सिर ही फूटता है, तो कुछ भी गलत नहीं।
बिहार की अस्सी फीसदी आबादी खेती और मजदूरी पर निर्भर है। मजदूरों की एक बड़ी संख्या दिल्ली, मुम्बई, पंजाब, हरियाणा समेत देश के कई दूसरे राज्यों में भी नौकरियां करती है। लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रुप में किसानों को उनकी फसलों को लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने, बैंक खातों में विदेशों से काला धन लाकर डलवाने सभी को रोजगार देने जैसे मनभावन सपने दिखाये थे।
इसके बजाय किसानों को अपने धान घाटे में बेचने को विवश होना पड़ा। गेहूं की फसल बरबाद होने के बावजूद न तो उचित दाम मिला और न ही मुआवजा। इसी के साथ मनरेगा का बजट घटा दिया गया जिससे मजदूरी करने वाले जो लोग अपने गांव में ही काम पर लग गये थे, उन्हें फिर से बाहर जाने को मजबूर होना पड़ गया। किसान और मजदूरों की आय कम हो गयी। उनसे सस्ते में खरीदी दालें व्यापारियों के हाथ में जाते ही तीन से चार गुना तक महंगी हो गयीं। इससे शहरी और ग्रामीण दोनों तबकों के लोग भाजपा से नाराज होते गये। उपभोक्ताओं की जेब खाली होने से दुकानदारों की बेच भी घट गयी।
ग्रामीण किसान और मजदूर की उपेक्षा ने पूरे राज्य की आर्थिक रीढ़ तोड़कर रख दी। यही हाल उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब और हरियाणा का है। विधानसभा चुनावों में भाजपा को इसका भी जबाव इन राज्यों को मिलेगा।
किसानों, मजदूरों तथा बेरोजगार नवयुवकों के सपने तहस-नहस हो गये। जिस सरकार को डेढ़ साल पूर्व खुशी-खुशी ये लोग भारी बहुमत से सत्ता में लाये थे, उपरोक्त कारणों से ये सभी वर्ग उसके खिलाफ हो गये।
इतना सब होने के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आयेदिन अपने मन की बात करते रहे और उन्होंने एक बार भी जनता के मन की बात सुनने की जहमत नहीं उठाई जबकि लोग चाहते थे कि चुनाव प्रचार के दौरान वे बार-बार अपनी बात करते रहे, जिसे जनता ने मान कर उन्हें देश की गद्दी सौंपी, ऐसे में उन्हें अब अपने मन की बात के बजाय जनता के मन की बात सुननी चाहिए थी। लोकतंत्र में केवल किसी एक के मन की बात ही नहीं सुनी जाती बल्कि यहां सबके मन की बात सुनी जानी चाहिए।
प्रधानमंत्री के द्वारा बिना कुछ किये, केवल अपनी काल्पनिक उपलब्धियों का गुणगान गाने से लोगों को भरोसा हो गया कि जुमलेबाजी के अलावा कुछ नहीं होने वाला। प्रचार में मोदी-शाह की जोड़ी ने जो भी वादा किया, बिहार ने उसपर विश्वास नहीं किया। वे पहले किये वादों की वादाखिलाफी के कारण दोनों को अविश्वास के पात्र मान चुके थे। यही कारण रहा कि जनता ने भाजपा को बिहार से बेदखल कर दिया।
-जी.एस. चाहल.
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