उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनावों का जैसे-जैसे समय करीब आ रहा है पार्टियों में जोर आजमाइश शुरु हो गयी है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की उपलब्धियों की ऐसी लिस्ट भी प्रस्तुत करने से पीछे नहीं हट रही है जो अधूरी है।
उधर मायावती की बहुजन समाज पार्टी अपने स्तर से जमीन बनाने में जुटी है।
कांग्रेस की बात की जाये तो राहुल गांधी रणनीतिकारों की अच्छी खासी फौज लेकर उत्साहित हैं।
भारतीय जनता पार्टी में प्रदेश स्तर पर अभी थोड़ा खलबली है। नेताओं में आपसी खींचतान और गुटबाजी की खबरें आयेदिन मिलती रही हैं। वैसे वे अपनी रणनीति को उजागर नहीं करना चाहते। उनके पास मुद्दों की कोई कमी नहीं रहती। कुछ गिने-चुने मुद्दे वे अपनी झोली में हमेशा डाल कर रखते हैं जो ऐन वक्त पर चुनावों में उनके मुताबिक काम आते हैं।
गुजरात के चुनावों में भाजपा से जिस तरह कांग्रेस ने मुकाबला किया वह अलग कहानी कहता है। निकाय चुनावों में जहां शहरों में भाजपा ने बाजी मारी, ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस उसपर बहुत भारी पड़ी। छह निगमों में जीत बीजेपी की हुई, लेकिन फासला बहुत थोड़े अंतर का रह गया जो 2010 में बहुत अधिक था।
इससे स्पष्ट है कि पार्टी के मजबूत किले में कांग्रेस ने सेंध लगा दी है।
उत्तर प्रदेश में बिहार, गुजरात चुनावों का असर पड़ना तय है। खासकर बिहार चुनाव में जीत के बाद भाजपा के विपक्षी अपनी नीतियों को बेहतर साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ने वाले।
मायावती और अखिलेश के पास उतना अधिक बताने को नहीं है, लेकिन वे उन बातों को भी बता रहे हैं और बतायेंगे जो उनके लिए जीत में योगदान नहीं दे सकतीं।
बसपा और सपा अपने कैंपेन अगले साल जनवरी से शुरु कर देंगी। दोनों पार्टियां कोई चूक नहीं चाहतीं। उनके लिए यह चुनाव बहुत अहम हो जाता है।
सपा यह सोचकर सुकून में हो सकती है कि वह सत्ता में है। इसलिए उसके द्वारा कराये जा रहे काम जनता देख रही है। जबकि असलियत में सपा के कई नेता और उनसे जुड़े लोग पार्टी को बदनामी के सिवा कुछ नहीं दे रहे।
बसपा के स्वामी प्रसाद मौर्य जरुर दावा कर रहे हैं कि यदि चुनाव अभी हुए तो मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल सकती है। यह भी सुनने में आ रहा है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों यही कोशिश में रहेंगे कि बसपा से गठबंधन किया जाये। मौजूदा परिप्रेक्ष्य में नहीं लगता कि यह मुमकिन है। बसपा अकेले दम पर सत्ता में आने का ख्वाब देख रही है।
-टाइम्स न्यूज़
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