उत्तर प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों में बच्चों का क्या हाल है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन स्कूलों में बच्चों की संख्या घटती जा रही है। सरकार चाहें कुछ भी दावा करती रहे कि शिक्षा विभाग के प्रयास से बच्चे बढ़ रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए लोग तैयार नहीं हैं। मजबूरी में ही लोग अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं।
मिड-डे मील के कारण बच्चे थोड़े-बहुत रुके जरुर हैं, लेकिन वे अपर्याप्त हैं। जब सरकार ने पिछले साल प्राइमरी स्कूलों में दूध वितरण की बात की थी तो सरकार के इस कदम पर सवाल उठने लगे थे। अब सरकार फल भी देने की बात कह रही है।
मिड-डे मील में फल देने से सरकार ने 207 करोड़ के बजट के खर्च का अनुमान लगाया है।
दूध का विकल्प फल को बनाया जा रहा है। इसके लिए तर्क दिये जा रहे हैं कि दूध के रखरखाव आदि में दिक्कत है। फलों के साथ ऐसा नहीं है।दूध पीने से भी पिछले साल कई बच्चे बीमार हो गये थे। मिड-डे मील खाने से तो आयेदिन बच्चों को उल्टी आदि की शिकायतें मिलती रहती हैं।
लगता नहीं कि प्राइमरी स्कूलों की दशा में सरकार के इन फैसलों से कोई सुधार आयेगा। ऐसा लगता है कि ऐसी योजनायें अधिकारी अपने फायदे के लिए बनाते हैं।
बजट हर साल बढ़ता रहता है और बच्चों की संख्या घट रही है। पंजीकरण के नाम पर भी शिक्षा विभाग में धांधली जारी है।