संविधान समिति के अध्यक्ष तथा महान दलित चिंतक बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर की याद अचानक ही भारत के सभी दलों के नेताओं को आयी है। उनमें अपने को सबसे बड़ा 'अम्बेडकरवादी’ बनने की होड़ लग गयी है।
भाजपा, कांग्रेस, सपा हो या बसपा सभी को अम्बेडकर से बड़ा नेता अब कोई नहीं लग रहा। चुनावी मौसम में सबसे बड़े दलित वोट बैंक को हथियाने की होड़ में दलितों का सदियों से उत्पीड़न करने वालों को भी डा. अम्बेडकर आज अपने उद्धारकर्ता नजर आने लगे हैं।
वोटों की राजनीति के कारण ही जिस भाजपा के नेताओं को आज अम्बेडकर भक्त बने देखा जा रहा है, वे अपने आदर्श दीन दयाल उपाध्याय और श्यामाप्रसाद मुखर्जी को एक ओर रखकर अम्बेडकर आराधना में लीन हैं। डा. अम्बेडकर की मूर्तियों की पूजा शुरु हो गयी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनके सबसे बड़े भक्त होने का दावा करते-करते नहीं थक रहे।
उधर कांग्रेस के नेताओं ने भी जवाहरलाल नेहरु और इंदिरा गांधी को भूल कर डा. अम्बेडकर की माला जपनी शुरु कर दी है। दलित मतदाताओं को लुभाने के लिए हमारे नेता चुनावी मौसम में अम्बेडकरवादी हो गये हैं। दलितों को दरकिनार करने वाले सपा सुप्रीमो भी डा. अम्बेडकर भक्त बनने में पीछे नहीं रहे।
बसपा लीडर मायावती तो पहले से ही अम्बेडकरवादी हैं। इसलिए यदि वे उनकी 125वीं जयंती जोर शोर से मना रही हैं तो वे अपने नेता का वास्तव में सम्मान कर रही हैं। उनके सामने वैसे भी दूसरे दलों द्वारा उनके दलित वोट बैंक में सेंधमारी को रोकने की चुनौती भी है।
उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों में दलित वोट बहुत महत्व रखते हैं। इन दोनों राज्यों पर सभी दलों की निगाह है। भाजपा अधिक से अधिक दलित मतों को अपने पक्ष में लाना चाहती है। लोकसभा चुनाव में भाजपा को यूपी में एतिहासिक सफलता मिली थी, उसमें दलित मतदाताओं का एकजुट होकर भाजपा के पक्ष में आना एक बड़ा कारण था। विधानसभा चुनावों में यह वोट बैंक बसपा की ओर लौटता दिख रहा है। इसीलिए भाजपा की चिंता स्वाभाविक है, जिसके लिए उसे डा. अम्बेडकर की आराधना का ढोंग करने को मजबूर होना पड़ा है। कांग्रेस भी इन्हीं मतों के सहारे डूबती नैया बचाने की आशा में अम्बेडकर की शरण में है।