सूखाग्रस्त इलाकों में कर्ज़ माफी की दरकार

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देश भयंकर सूखे की चपेट में है और केन्द्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे को पटखनी देने के लिए अपने-अपने दांव चलने में व्यस्त हैं। यह सब चुनावी दंगल में कुर्सी बचाने और कुर्सी छीनने का खेल है। देश के तेरह राज्य इस भयावह आपदा के शिकार हैं। झुलासाती गर्मी में भीषण अग्निकांडों की श्रंखला चल पड़ी है। यह दूसरी बड़ी आपदा है। देवभूमि के जंगलों में फैली आग काबू से बाहर है, जिसपर देवताओं का भी काबू नहीं हो पा रहा।

देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश भी सूखे की चपेट में है। साथ ही यहां भी अग्निकांडों का सिलसिला जारी है। राज्य की राजधानी हो या गरीबों के गांव जलने वाले गरीब किसान और मजदूर ही सबसे अधिक हैं। बैंक अधिकारियों द्वारा करोड़पतियों को दिया धन लेने में सरकारें और बैंक विफल रहे तो बैंकों का घाटा पूरा करने को सरकारी खजाना खोल दिया जाता है। उन भ्रष्ट बैंक अधिकारियों से कुछ नहीं कहा जाता, जिन्होंने सांठगांठ कर इस तरह के लोगों को कर्ज दिया जो पिछला ही भुगतान नहीं कर रहे थे।

सूखा पीड़ित किसानों को इस समय कर्ज माफी की दरकार है। वे पिछली फसलों में घाटा उठा चुके और नयी फसलों को पानी न मिलने से वे सूखने के कगार पर है। लोग पशुओं तक को हरा चारा देने तक में समर्थ नहीं हैं। जंगलों में घास तक सूख गया। तेलंगाना तथा महाराष्ट्र में किसान गांव तक छोड़ रहे हैं। पशुओं को तिलक लगाकर भूखे प्यासे मरने को छोड़ दिया है। जब जंगल में पानी व चारा नहीं तो वे तड़प-तड़प कर ही मरेंगे।

भारतीय किसान मजदूर संगठन के नेता वीएम सिंह, भाकियू नेता चौ. विजयपाल सिंह, भाकियू(भानु) नेता चौ. दिवाकर सिंह तथा भाकियू(असली) नेता चौ. हरपाल सिंह ने कहा है कि पीड़ित किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला फिर शुरु हो गया है। फसलों का वांछित उत्पादन न होने, बैंकों का कर्ज अदा करने में असमर्थता इसी के साथ भयंकर होते जा रहे सूखे से किसान हिम्मत हारने लगे हैं। ऐसे किसानों की संख्या बढ़ रही है, जो आत्महत्याओं की ओर बढ़ रहे हैं।

सरकार का यह आश्वासन कि मानसूनी वर्षा अच्छी होगी, किसानों को कोई दिलासा नहीं दे रहा। उनका कहना है -'का वर्षा जब कृषि सुखाने।’ खेती तो बरबादी के कगार पर है। सूखने के बाद पानी का क्या लाभ? फिर यह भी कैसे माना जाये कि मानसून इस बार अच्छा बरसेगा?

बड़े तथा संपन्न किसान अपने साधनों के बल पर अपनी फसलें बचाने में सफल भी हैं और नयी फसलें भी बो रहे हैं। यह अलग बात है कि इससे लागत बढ़ जायेगी। इसके विकल्प में उनके पास खेती के बजाय आय के कई अन्य स्रोत भी हैं। इसलिए उनकी सेहत पर इससे खास असर नहीं पड़ने वाला।

मुसीबत में वे छोटे किसान हैं जो कर्ज लेकर जैसे-तैसे फसलें बो चुके या बोने की तैयारी कर रहे हैं। उनके सामने खड़ी फसल बचाने और खरीफ को बोने की चुनौती है। गन्ना उनका सस्ते में क्रेशरों पर चला गया। गेहूं खाने लायक भी नहीं हुई। अब सूखे में अगली फसल पर भी संकट है। कर्ज से दबा यह तबका आत्महत्याओं की ओर उन्मुख है। इन छोटे तथा सीमांत किसानों का बैंक कर्ज सरकारों को तुरंत माफ करना होगा। यदि इसमें सरकार ने देरी की तो बेकसूर किसानों की मौतों का सिलसिला और गांवों से पलायन की रफ्तार हमारी अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख देगी। केन्द्र को इसके लिए त्वरित कदम उठाने होंगे। अपने मन की सुनाने वालों ने यदि किसानों की नहीं सुनी तो, किसान उनसे सिंहासन छीनने को मजबूर होंगे।

-जी.एस. चाहल.