केन्द्र सरकार देश की आर्थिक मजबूती के जो दावे कर रही थी उनकी पोल खुल गयी है। देश के सरकारी बैंक आर्थिक रुप से दिवालिये होने की ओर बढ़ रहे हैं। नोट बदलने के बहाने लोगों का पैसा बैंकों में जमा कराया जा रहा है। भले ही इसे कालेधन को समाप्त करने का प्रचार किया जा रहा हो।
बीती तिमाही अर्थात् जुलाई, अगस्त, सितम्बर में पिछले साल बैंक ऑफ़ महाराष्ट्रा को 17 करोड़ का मुनाफा हुआ था। इस वर्ष इसी तिमाही में लाभ के बजाय इस बैंक को 337 करोड़ का घाटा हुआ है। इसी के साथ चालू तिमाही में यह घाटा और बढ़ रहा है। समाप्त तिमाही में देना बैंक भी 44 करोड़ के घाटे में चला गया। यही नहीं इलाहाबाद बैंक भी 63 फीसदी घाटे में है। यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया 77 फीसदी घाटे में है। देश का दूसरा सबसे बड़ा बैंक पंजाब नेशनल बैंक भी सितम्बर के अंत तक 12 फीसदी की गिरावट में था। सभी सरकारी बैंक बीते एक वर्ष से भारी घाटे की ओर बढ़ रहे हैं। घाटे को कम करने या रोकने का कोई उपाय सरकार तथा उसके अर्थशास्त्रियों को नहीं सूझ रहा।
जब से केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार आयी है। तब से वह बैंकों पर उद्योगों को कर्ज देने पर जोर दे रही है। इसी का परिणाम है कि जिन पूंजीपतियों पर पिछला कर्ज बकाया था, उन्हें फिर से कर्ज दिया गया। कर्ज भुगतान का बड़े उद्यमियों पर कोई दबाव नहीं बनाया बल्कि उन्हें सरकार आर्थिक तरक्की के नाम पर बैंकों से धन देने को कहती रही। उसी का नतीजा है कि बड़े कर्जदारों पर पांच लाख करोड़ रुपयों की राशि बकाया है। जिसे वसूलने का बैंकों और सरकार के पास कोई उपाय नहीं।
एनपीए (गैर निष्पादित सम्पत्ति) का नाम दिये जाने वाली रकम बीते एक साल में बढ़कर दोगुनी से भी अधिक हो गयी। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पांच नवंबर को गुड़गांव में एसबीआई अकादमी में ऋण वसूली पर आयोजित एक सेमिनार में यह स्वीकार किया कि सरकार ने बैंकों को कई बार आर्थिक सहायता देकर हालात सुधारने की कोशिश की लेकिन एक साल में हालत इतनी खराब हो गयी कि उनके उपाय भी काम नहीं कर रहे। वित्त मंत्री ने घरेलू निवेश की गति को भी बहुत कमजोर बताया था, साथ ही घरेलू निवेश के बढ़ाने के उपायों पर जोर दिया था। यानि सरकार विदेशी निवेश के मोरचे पर विफल होकर जनता की जेब की ओर देख रही थी। इसका मतलब यह भी है कि सरकार किसी तरह लोगों की जेब के धन को बैंकों के हवाले कर, बैंकों द्वारा उद्योगपतियों को दिये धन की भरपाई करने की जुगत में थी।
हजार और पांच सौ के नोट बदलने के बहाने सरकार जनता के धन को बैंकों में जमा कराने में सफल हो गयी है। कालेधन को समाप्त करने के बहाने किया गया यह काम कालेधन को रोकने में कितना सफल होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन यह तय है कि पैसे से कंगाल हो चुके बैंकों को बैठे बिठाये कुछ समय तक धन मिल गया है। जनता के इस धन को बैंक कब तक लौटायेंगे? यह सरकार तय करेगी।
लोगों को समझ में आ गया होगा कि सरकार, विशेषकर प्रधानमंत्री ने उन्हें अंधेरे में रखा है। उन्होंने खुद कहा है कि लोग बैंक से नोट बदल लें यानि पुराने नोट देकर नये नोट ले लें, लेकिन बैंकों में पैसा ही नहीं भेजा गया और लोगों से पैसा जमा कराये जाने के बाद उन्हें खाली हाथ भेजा जा रहा है। लोग पैसों के लिए गिड़गिड़ा रहे हैं। बैंक वाले कहते हैं कि जब उनके पास पैसा है ही नहीं तो कहां से दें? पहले दिन कुछ नोट दिये भी गये, अब कहा जा रहा है कि पैसा आयेगा तो मिलेगा।
एटीएम से दो हजार तक ले सकने को कहा गया लेकिन एटीएम तो तभी पैसे उगलेगा जब उसमें कोई डालेगा। उससे भी खतरनाक बात यह है कि नये नोट एटीएम में नहीं चलेंगे। बताया जा रहा है कि चार सप्ताह बाद एटीएम सुचारु हो जायेंगे?
पूंजीपतियों को बांटे धन की भरपायी आम आदमी के खून पसीने की कमाई से करने का हथकंडा सरकार को कुछ समय के लिए राहत जरुर दे सकता है लेकिन इसका परिणाम सरकार के लिए बड़ी आफत का कारण भी बन सकता है। परेशान लोगों द्वारा लूटपाट तथा फसाद की घटनायें इसका स्पष्ट संकेत हैं।
-जी.एस. चाहल.
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