देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों की धूम है। जनता से कहा जा रहा है कि सभी लोग मतदान जरुर करें। सरकारी और गैरसरकारी संस्थायें इस प्रचार में लगी हैं। देखादेखी कई लोग अखबारों में बयान देने लगे हैं तथा इस काम को सबसे जरुरी काम कहकर मतदान के लिए प्रेरित कर रहे हैं। निर्वाचन आयोग का तो सबसे पहला दायित्व है कि वह शत-प्रतिशत मतदान के लिए हर जरुरी कदम उठाये।
ठीक भी है सूबे या देश की सरकार बनाने में सभी की सहमति स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है। इस स्वस्थ लोकतंत्र की चाहत में हमें सात दशक बीत गये लेकिन जनता को उसके द्वारा चुने गये अधिकांश प्रतिनिधियों ने उसे निराश ही किया। कई बार बदल-बदल कर अपने प्रतिनिधियों को सिंहासन तक पहुंचाया लेकिन उम्मीदों पर खरा उतरने वाले बहुत कम ही निकले।
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ऐसे में हमारे बीच के बहुत से लोगों को मतदान से निराशा होने लगी। देश की साक्षरता बढ़ने के बावजूद मतदान प्रतिशत नहीं बढ़ पाया। कहीं-कहीं तो 10 से 15 फीसदी मत प्राप्त करने वाले चुनाव जीत गये। अब चुनाव आयोग नोटा की बात भी कर रहा है जबकि इससे बेहतर तो यही होना चाहिए कि जितने मतदाता वोट डालने नहीं पहुंचे, उन्हें नोटा के प्रयोग के बिना ही नोटा मान लिया जाये। मतदान न करने का तो यही मतलब है कि जो मतदाता मतदान ही नहीं कर रहा, वह किसी के भी पक्ष में नहीं। किसी के पक्ष में होता तो मतदान जरुर करता। उसने मतदान न करके ही साबित कर दिया कि वह इनमें से किसी को नहीं चाहता। बेहतर हो कि चुनाव आयोग घोषित कर दे कि वोट डालने नहीं आने का मतलब होगा, नोटा बटन दबाना।
इससे यह प्रचार भी करने की जरुरत नहीं होगी कि शत-प्रतिशत मतदान हो। लोग जनप्रतिनिधियों से ऊब चुके। व्यक्तिगत लाभ-हानि अधिक महत्वपूर्ण है। उसी लिहाज से लोग मतदान करने या न करने का फैसला लेते हैं। समाज या देशहित की बात गौण होती जा रही है।
-जी.एस. चाहल.
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