भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और कानून व्यवस्था जैसी समस्यायें भी मुद्दे नहीं बन पा रहे। कई ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक माहौल बनाने का काम करते हैं वे धीरे-धीरे विवादित बयानबाजी की लय में लौटने लगे हैं। जहां साक्षी महाराज, संगीत सोम और संजीव बालियान भाजपा के पक्ष में साम्प्रदायिक माहौल बनाने की ओर बढ़ने शुरु हुए हैं, वहीं सपा और कांग्रेस अल्पसंख्यक मतों को बंटने से रोकने के लिए एकजुट करने को एक दूसरे के साथ हो गये हैं। जबकि मायावती भाजपा का भय दिखाकर दलित-मुस्लिम एकता का राग अलाप रही है। ऐसे में विकास के मुद्दे नेपथ्य में चले गये हैं।
निर्वाचन आयोग पहले ही जातीय अथवा साम्प्रदायिक बयानबाजी या इसी तरह के दूसरे किसी भी प्रयास को चुनावी ढाल या हथियार बनाने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की चेतावनी जारी कर चुका। इससे सभी दल थोड़े सतर्क जरुर हो गये लेकिन ऐसा नहीं है कि जो वे इस ओर से बिल्कुल अलग हो गये हों।
उत्तर प्रदेश में कुल 403 सीटों में से 125 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। वे यदि एकजुट होते हैं तो प्रदेश की सत्ता का चुनावी समीकरण प्रभावित कर सकते हैं। यही कारण है कि स्वयं को धर्मनिरपेक्ष दल बताने वाली सपा, कांग्रेस और बसपा इस अल्पसंख्यक समुदाय पर डोरे डालते रहते हैं। जब से भाजपा केन्द्र में सत्तारुढ़ है तब से सपा, बसपा और कांग्रेस में इस समुदाय के मतों पर कब्जे के लिए खींचतान रही है। 2007 के चुनाव में कल्याण सिंह को मुलायम सिंह यादव के अपनाने पर इस समुदाय ने सपा को सबक सिखाने के लिए एकजुट होकर बसपा का समर्थन किया तो वह पहली बार अकेले बहुमत के साथ सत्ता में आ गयी। कल्याण सिंह को दरकिनार कर जब सपा ने 2012 का चुनाव लड़ा तो वह भी पहली बार भारी बहुमत से इसी वर्ग के कारण सत्ता में लौटी।
2014 के लोकसभा चुनाव से पूर्व मुजफ्फरनगर दंगे ने राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का ऐसा रंग दिखाया कि यहां से किसी भी दल का एक भी मुस्लिम उम्मीदवार संसद नहीं पहुंच सका। कुछ नेता फिर उसी ध्रुवीकरण को हवा देना चाहते हैं तथा आपसी सदभाव को बिगाड़कर राजनीतिक हित साधन चाहते हैं।
इसके पीछे सपा और भाजपा दोनों की मजबूरी है। सपा के शासन में भ्रष्टाचार, परिवारवाद और एक वर्ग विशेष के प्रति भेदभाव पूर्ण व्यवहार के कारण सपा से लोग नाराज हैं। दूसरी ओर केन्द्र में भाजपा ने पहुंचने के बाद उस प्रदेश में कोई भी विकास या उल्लेखनीय काम नहीं किया जिससे लोगों की समस्यायें कम हुई हों बल्कि नोटबंदी से ग्रामीण, किसान, मजदूर और व्यापारी सभी परेशान हैं। दोनों सरकारें एक दूसरे के सिर ठीकरा फोड़कर पाक साफ होना चाहती हैं जिसे लोग समझ रहे हैं। हकीकत से सभी राजनीतिक दल भी परिचित हैं।
ऐसे में चुनाव जीतने के लिए एक ओर आरएसएस की राजनैतिक विंग मानी जाने वाली भाजपा है तो दूसरी ओर कथित धर्मनिरपेक्ष सपा और उसकी सहयोगी कांग्रेस पार्टी है। एक तीसरी धारा दलित-मुस्लिम एकता का नारा देकर सत्ता की चाह रखने वाली बसपा है। भाजपा केन्द्र तथा सपा राज्य सरकार चला रही है। अपनी विफलताओं को दरकिनार कर दोनों ही गुट साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ओर फिर चल निकले हैं।
ऐसे में प्रदेश की जनता के असली मुद्दे नेपथ्य में खिसकने शुरु हो गये हैं। जबकि नेता साम्प्रदायिक पर्दे पर अपना अभिनय करने को तैयार हैं। इस रंगमंच के कलाकार अपनी कलाकारी का खेल धीरे-धीरे शुरु करने लगे हैं।
-जी.एस. चाहल.
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