बहुभाषी काव्यशिल्पी श्री गुरु गोविन्द सिंह जी

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गुरु जी शस्त्र और शास्त्र विधाओं में जितने निपुण थे, उतने ही काव्यकला के भी मर्मज्ञ थे.


समाज सुधारक, दीन-दुखियों के हितैषी, दानी तथा ब्रहमज्ञानी गुरु गोविन्द सिंह हिन्दी, ब्रज, पंजाबी और फारसी भाषाओं के धुरंधर विद्वान थे। उन्होंने इन भाषाओं में अनेक रचनायें कीं।

अपने 42 वर्षीय जीवन का अधिकांश समय संघर्ष में व्यतीत करने के बावजूद इतनी काव्य रचना गुरु जी की सशक्त क्षमता का परिचायक है।

गुरु गोविन्द सिंह जी ने जापु साहिब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चंडी दी वार, चंडी चरित्र, ज्ञान प्रबोध, अवतार, सबद हजारे, शस्त्र माला, पाख्याने त्रियाचरित्र, जफरनामा, हिकायतनामा तथा सर्वलोह कुल चौदह काव्य कृतियों की रचना की है।

चंडी दी वार पंजाबी भाषा तथा जफरनामा और हिकायतनामा फारसी नज्म में है। जबकि शेष काव्य हिन्दी व ब्रज में है।

जापु साहिब में संस्कृत, पंजाबी, ब्रज भाषा के साथ-साथ फारसी शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। विचित्र नाटक, अवतार, सबद हजारे, अकाल स्तुति और 53 सवैये हिन्दी व ब्रज भाषा के उत्कृष्ट महाकाव्य हैं। इनकी भाषा शैली और कला एवं भाव पक्ष हिन्दी कला के सभी मानकों पर पूरी तरह खरे उतरते हैं।

गुरु जी के इस काव्य की समीक्षा करने के लिए अत्यंत विद्वान तथा एक विस्तृत लेखन क्षेत्र की आवश्यकता है जो यहां संभव नहीं। फिर भी पाठकों की जानकारी हेतु गुरु जी की रचनाओं को उनक कुछ काव्यगत विशेषताओं सहित यहां दिया जा रहा है।

सबद हजारे नामक कृति गुरु जी की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कृतियों में से एक है। इस कृति में भक्तिकालीन कवियों की भांति रसों की अथाह गंगा का प्रवाह दृष्टिगोचर होता है।

राग सोरठ में गुरु जी की एक रचना का रस्वादन कीजिए-
‘प्रभु जु तो कह लाज हमारी।
नीलकंठ नर हरि नारायन नील बसन बनवारी।।'
परम पुरख परमेश्वर स्वामी पावन पवन अहारी। 
निर्विकार, निरजुर, निंद्रा बिन निर्विख नरक निवारी।। 
कृपा सिंधु काल त्रै दरसी कुकृत प्रनासन हारी। 
धर्नुपान, घृतमान धराधर अनिविकार असिधारी।। 
हौं मति मंद चरन शरनागति कर गहि लेहु उबारी।।’

अवतार नामक ग्रंथ में गुरु जी ने चौबीस अवतारों के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं का काव्यात्मक वर्णन किया है। इस ग्रंथ में हिन्दी व ब्रज भाषा का प्रयोग किया है।

कृष्णावतार से संबंधित प्रस्तुत रचना में गुरु जी ने कृष्ण की बांसुरी वादन का बड़ा ही मोहक चित्र खींचा है।

यहां अनुप्रास और श्लेष अलंकार है-
‘बाजत बसंत अरु भैरव हिंडोल राग, 
बाज है ललिता के साथ हवैं धनासरी। 
मालवा कल्यान अरु मारु राग, 
बन में बजावे कान्ह मंगल निवासरी। 
सुरी अरु आसुरी अउ पन्नगी जे हुती तहां, 
धुनि के सुनत पै न रही सुधि जासरी। 
कहें इयों दासरी सु ऐसी वाजी बांसुरी।’

ज्ञान प्रबोध नामक महाकाव्य में गुरु जी ने संस्कृत भाषा के अनेक बहुमूल्य व ज्ञानवर्द्धक ग्रंथों के सार को अत्यंत सरल, मधुर व काव्यात्मक रुप में हमारे सामने रखा है।

सर्व व्यापक परमात्मा के गुणवाचक नामों का एक अत्यंत सुन्दर आनुप्रासिक चित्र निन्मलिखित काव्य रचना में दृष्टव्य है-
‘छत्रधारी, छत्रपति, छैलरुप, छितनाथ, छोणकार, छायावार, छत्रपति गाइये। 
विश्वनाथ, विषंभर, वेदनाथ, वालाकर, बाजीकर, बंधन बताइये। 
न्योलीकरम, दृधाधरी, विद्याधर, ब्रहमचारी, ध्यान को लगावै नैक ध्यान हु ते पाइयै। 
राजन के राजा महाराजन के महाराजा ऐसो राजा छोड़ और दूजो कौन ध्याइयै।'

विचित्र नाटक गुरु जी की हिन्दी रचना है जिसमें ब्रज व अवधि भाषा के शब्दों का संतुलित प्रयोग हुआ है। इसमें तुलसीदास कृत रामचरितमानस के भांति चौपाई छंद का ही अधिक प्रयोग है। कहीं-कहीं दोहा छंद भी है। इस कृति में गुरु जी ने अपने पूर्व जन्म और इस जन्म की प्रमुख घटनाओं का बड़े ही काव्यात्मक रुप में उल्लेख किया है।

एक प्रकार से यह उनकी आत्मकथा है। एक झलक देखिये-
‘तिन प्रभु जब आयसु मुह दिया। 
तब हम जनम कलू महि लीया। 
चित न भयो हमरो आवन कहि। 
चुभी रही श्रुति प्रभु चरनन महि।’

जापु साहिब नामक काव्य कृति में गुरु गोबिंद सिंह जी ने हिन्दी के विख्यात कवि केशवदास की भांति उन्हें छंद शास्त्र का संपूर्ण ज्ञान था। जापु साहिब के प्रत्येक छंद में काव्य-सौष्टव कूट-कूट कर भरा हुआ है।

छप्पय छंद में गुरु जी की एक रचना प्रस्तुत है-
‘चक चिन्ह अरु बरन जाति अरु पात नहिन जिह। 
रुप रंग अरु रेख भेख कोउ कह न सकत कहि। 
अचल मूरति अनभउ प्रकाश अमितोज कहिज्जै। 
कोटि इंद्र इंद्राणि साह साहणि गणिज्जै।’

जापु साहिब में गुरु जी ने ईश्वर के गुणवाचक नामों का अत्यंत क्रमबद्ध एवं स्तुत्य रुप में वर्णन किया है। इस ग्रंथ की मूल भाषा वैसे तो ब्रज है लेकिन स्थान-स्थान पर उसमें संस्कृत शब्दों का समावेश कर उसे और सुगठित रुप प्रदान किया गया है। वास्तव में गुरु जी की यह कृति भक्ति प्रधान है। सभी गुरुधामों में इसका प्रातःकाल में नियमित पाठ किया जाता है।

अकाल स्तुति नामक कृति में गुरु जी ने सर्वव्यापक परमात्मा की महानता और गुणों का वर्णन करते हुए उनकी प्राप्ति के साधन बताये हैं। इस ग्रंथ में धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखंड, बाह्य आडंबरों और रुढ़िवादिता का गुरु जी ने विरोध किया है। इस काव्य कृति में अनेक छंदों में आलंकारिक भाषा का सुन्दर चित्रण हुआ है।

प्रस्तुत छंद में ईश्वर की सर्वव्यापकता का जो चित्र गुरु जी ने खींचा है वह अन्यत्र दुर्लभ है-
‘कहूं जच्छ गंधर्व उरग कहूं विद्याधर,
कहूं भये किन्नर पिशाच कहूं प्रेत हो।।
कहूं हुई कै हिन्दुआ गायत्री को गुप्त जयी, 
कहूं हुई कै तुरका पुकारे बांग देत हो।। 
कहूं वेद रीति कहूं तांसिउ विपरीत, 
कहूं त्रिगुन अतीत कहूं सुर गन समेत हो।।’

चंडी दी वार और चंडी चरित्र में वीर रस प्रधान रचनायें हैं। इन ग्रंथों की रचना गुरु जी ने उत्साह संचार हेतु की थी। इसमें काव्य कला अपने यौवन पर है। शस्त्रनाम माला में गुरु जी ने रामायण और महाभारत कालीन युद्ध से लेकर अपने समय तक किये जाने वाले युद्धों में प्रयुक्त हथियारों के निर्माण, रख-रखाव, संचालन और प्रहार क्षमता तथा परिणामों का काव्यात्मक शैली में वर्णन किया है। इसके छंदों का गायन शास्त्रीय संगीत पर आसानी से किया जा सकता है।

हिकायतनामा में 966 तथा जफरनामा में 140 छंद हैं। ये रचनायें फारसी भाषा की उत्कृष्ट रचनायें मानी जाती हैं। जफरनामा में गुरु जी ने मुगल बादशाह औरंगजेब को उसके विश्वासघातों की याद दिलाने हेतु बड़े ही स्पष्ट भाषा का प्रयोग किया है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि गुरु गोविन्द सिंह शस्त्र और शास्त्र विधाओं में जितने निपुण थे, उतने ही वे काव्यकला के भी मर्मज्ञ थे।

-जी.एस. चाहल.



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