लगता है विधानसभा की अमरोहा सीट का तुर्किस्तान महबूब अली के हाथ से निकल चुका है। इसके लिए शौकत पाशा हत्याकांड को हल्के में लेकर तुर्कों के सम्मेलन पर सत्ता के दबाव का इस्तेमाल कर प्रतिबंध लगवाना तो एक बड़ा कारण है लेकिन उनके विरोधियों को महबूब अली के खिलाफ मुफ्त का हथियार भी लग गया।
महबूब अली के राजनैतिक विरोधी इस प्रकरण को ठंडा नहीं होने देंगे बल्कि इसके लिए आग में घी का काम करते रहना चाहते हैं।
तुर्क समाज में इस समय दो नेता ऐसे हैं जो राजनैतिक प्रतिद्वंदिता के कारण महबूब अली से बहुत पीछे रह गये हैं। जनता में जनाधार खो चुके तुर्क बिरादरी के ये नेता स्वयं तो आगे-आगे बढ़कर महबूब अली की बराबरी नहीं कर सकते, ऐसे में किसी न किसी बहाने उनकी टांग पकड़कर खींचने का प्रयास करते रहना चाहते हैं। शौकत पाशा हत्याकांड ने उन्हें यह सुनहरा मौका प्रदान कर दिया है।
तुर्कों के मिजाज को समझने वाला जानता है कि इन्हें ताकत के बल पर काबू करना आसान नहीं।
महबूब अली ने यहीं गलती कर दी। पिछले दिनों आंदोलनरत तुर्कों पर पुलिस बल का प्रयोग और फिर उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज कराने से तुर्क महबूब अली के और भी खिलाफ हो गये।
इसी घटना के बाद युवा तुर्कों को सम्मेलन करने की प्रशासन ने इजाजत नहीं दी।
महबूब विरोधियों ने इसमें महबूब अली के दबाव की बात फैलायी, जैसाकि स्वाभाविक था, इसपर कोई भी यकीन कर सकता था। तुर्कों को यह और भी बुरा लगा।
वे महबूब को चुनावों में वोट देते रहे हैं। उन्हीं के वोटों से सत्ता की ताकत हासिल करने वाला उस ताकत से उन्हें ही दबाने का प्रयास कर रहा हो तो यह उनके जले पर नमक लगाने से भी बुरी बात थी।
-टाइम्स न्यूज़ अमरोहा.
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