राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने वैश्विक समुदाय की सलाह के खिलाफ पेरिस समझौते से वापस ले लिया है। उनका कहना है कि अगर वह कर सकता है तो वह इस समझौते पर पुनर्विचार करना चाहता है, और यदि वह नहीं कर सकता है, तो वह ठीक भी है। हालांकि, फ्रांस, जर्मनी, इटली ने संयुक्त बयान जारी किया जिसमें कहा गया है कि पेरिस जलवायु समझौते पर पुनर्विचार नहीं किया जा सकता है।
उन्होंने कहा कि अगर भारत जैसे देशों को 2020 तक अपने कोयला बिजली संयंत्रों को दोहरे करने की अनुमति दी जाए, तो अमेरिका को उत्सर्जन क्यों घटाना चाहिए। बेशक, उन्होंने यह विचार नहीं किया कि भारत ने अकेले महीने में 13.7 गीगा वाट प्रोजेक्ट रद्द कर दिया है।
अमरीका द्वारा अंतरराष्ट्रीय समझौतों को ख़ारिज करना कोई नयी बात नहीं है, निजी स्वार्थ हितों का संरक्षण करके अमरीका स्वयं अपने साथ अन्याय कर रहा है। ट्रम्प चाहे जो भी कहें- जलवायु परिवर्तन को लेकर राजनीतिक वेग नहीं थमेगा। यूरोपीय संघ, भारत और चीन पेरिस समझौते के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं की पुष्टि कर रहे हैं और इसके कार्यान्वयन को बढ़ाने के लिए सहयोग को बढ़ा रहे हैं। यह देश "जलवायु परिवर्तन और स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में अपने राजनीतिक, तकनीकी, आर्थिक और वैज्ञानिक सहयोग को काफी तेज करते नज़र आ रहे हैं और जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले 194 देश ट्रम्प के इस फैसले से इन्कार कर रहे हैं
यूएनएफसीसीसी के पूर्व कार्यकारी सचिव एवं "मिशन 2020” की प्रणेता क्रिस्तिना फिगुरेस ने कहा कि, "पेरिस समझौते से बाहर होने का अमेरिकी निर्णय नवंबर से इस विषय पर सभी अटकलों को समाप्त करता है अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय स्तर दोनों पर वास्तविक अर्थव्यवस्था अपने डी कार्बनिजेशन या कार्बन रहित प्रवृत्ति को जारी रखे हैं.”
ऐसा करके अमरीका अपने आप को निकारागुआ और सीरिया, दुनिया के मात्र दो ऐसे देश जिन्होंने पेरिस समझोते पर हस्ताक्षर नहीं किये, के समकक्ष कहदा कर लेगा जो जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए एक गंभीर अंतरराष्ट्रीय प्रयास को कमजोर करेगा। गौरतलब है कि अमरीका ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे आगे है
जब भारत, चीन जैसे एशियाई देश विकास के शैशव काल में थे तब अमरीका,यूरोपीय संघ आदि विकास के तेज रथ पर सवार पश्चिमी देशों ने अनधाधुन्ध ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करके धरती को जलवायु परिवर्तन के गर्त में धकेला है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन को रोकने की उनकी एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी है यह पहला मौका नहीं है जब अमरीका अपनी जिम्मेदारी निभाने से किनारा कर रहा है। पेरिस समझौते से खुद को अलग करना अनैतिक और गैर-जिम्मेदाराना कदम है
यूरोपीय जलवायु फाउंडेशन की सीईओ लॉरेंस टुबियाना ने कहा कि, "राष्ट्रपति ट्रम्प ने अपने देश को इतिहास के गलत पक्ष पर डाल दिया है यह निर्णय विश्व स्तर पर अमेरिका और घरेलू स्तर पर अपनी स्थिति को नुकसान पहुंचाएगा।"
ज्ञात हो कि जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ने से अमेरिका में 20 लाख मकान पानी में डूब सकते हैं। हमें ऐसे नेताओं की जरूरत है जो जलवायु परिवर्तन को लेकर सकारात्मक कार्य करेंगे और खतरे से जूझ रहे समुदायों के साथ खड़े रहेंगे।
इस विषय पर टिप्पणी करते हुए द एनर्जी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (टेरी) के डायरेक्टर जेनरल (डी जी) डॉ अजय माथुर ने कहा कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अमेरिका पेरिस समझौते से बाहर निकल रहा है। समझौते के कार्यान्वयन में इसके नेतृत्व और वित्तीय सहायता की अनुपस्थिति ने वैश्विक उत्सर्जन को कम करने और साथ ही जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के अनुकूल होने के लिए कार्रवाई करने में और देरी कर देगा जो पहले से ही घटित हुआ है। हालांकि, हमारा मानना है कि अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता की कीमतों में गिरावट के सकारात्मक रुझान वैश्विक स्तर पर बढ़ोतरी सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक कार्रवाई जारी रखेंगे, ताकि वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रह सकें।"
अब दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरनाक और विनाशकारी दौर में प्रवेश कर चुकी है। जलवायु परिवर्तन की इस संक्रमण बेला में यदि हम अपने कदम पीछे खींच सकते हैं तो सिर्फ ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करके जिसके लिए अब विश्वव्यापी मुहिम की तैयारी हो रही है। पूरी दुनिया में 400 से ज्यादा शहरों ने अपने यहां होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने और जलवायु के प्रति अनुकूल कार्य-व्यवहार वाले समुदाय तैयार करने की पहले ही प्रतिज्ञा ली है।
पूरी दुनिया में जैव-ईंधन पर निर्भरता को न्यायसंगत तरीके से समाप्त करने की लड़ाई बुनियादी स्तर पर लड़ी जा रही है।
दुनिया के पर्यावरण में हो रहे बदलावों के परिणामस्वरूप इस वक्त हमें अकल्पनीय नुकसान और तकलीफ का सामना करना पड़ रहा है। हमें एक्ट आन क्लाइमेट करना ही होगा।
-डॉ सीमा जावेद.
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