आगामी लोकसभा चुनाव में भी सबसे अधिक संसदीय सीटों वाले उत्तर प्रदेश की केन्द्र में सरकार बनवाने में महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। ताजा स्थिति के हिसाब से देखा जाये तो यहां भाजपा का विकल्प दिखाई नहीं दे रहा। सूबे की राजनीति में पिछले दो दशकों में बड़ी ताकतों के रुप में अपना प्रभाव जमाये रखने वाले समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी बहुत कमजोर हो चुके हैं तथा कांग्रेस अपना जनाधार खोये तीसरे दशक में है लेकिन उसके नेतृत्व को यहां की नब्ज का ही पता नहीं चल रहा।
भले ही लोकसभा चुनाव में अभी डेढ़ वर्ष का समय बाकी है तथा सूबे की राजनीति पर यह दावा नहीं किया जा सकता कि चुनावों तक हवा का रुख यही रहेगा लेकिन कोई अप्रत्याशित घटना कब क्या रुख ले ले, यह भविष्य के गर्भ में छिपा है। विपक्षी एकता की जिन चरचाओं को यदा कदा हवा मिलती है उससे इस विषय पर सार्थक कुछ भी होता नहीं जान पड़ता। दरअसल विपक्षती एकता, विपक्षी नेताओं के निहित स्वार्थों की भेंट चढ़ती रही है। मायावती हों या अखिलेश कोई भी अपने को दोयम मानने को तैयार नहीं। उधर कांग्रेस भले ही उत्तर प्रदेश में जनाधारहीन पार्टी बनती जा रही है लेकिन उसके नेता राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के बाद एक बड़ी ताकत में हैं। समाजवादी पार्टी पहले ही पिता-पुत्र के वर्चस्व की लड़ाई में उलझकर अपनी बरबादी अपने आप कर चुकी।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में अभी भी राम मंदिर तथा कई दूसरे कारणों से साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की स्थिति कायम है। जिसे पर्दे के पीछे से दक्षिणपंथी ताकतें समय-समय पर उत्साहित करती रहती हैं। विकास का नारा भले ही चल रहा हो लेकिन सांस्कृतिक-वैचारिक विभाजन उसपर भारी पड़ रहा है, जिसके कारण भाजपा की जड़ें मजबूत होती जा रही हैं। उसके सहयोगी संगठन आरएसएस का नेतृत्व इन हालातों से भली-भांति परिचित है। इसीलिए वह हिन्दुवादी विचारधारा को गति प्रदान करने वाले अपने एजेंडे पर तेजी लेकिन सतर्कता से आगे बढ़ रहा है।
भाजपा दलित और पिछड़े वर्गों को पिछले दोनों चुनावों की तरह अपने साथ जोड़े रखने के हाथकंडों को अपनाये रखना चाहती है।
उत्तर प्रदेश का किसान, मजदूर और दलित रोजगार सृजन न कर पाने और व्यापारी वर्ग जीएसटी की पेचीदगियों के कारण भाजपा से नाराज होना शुरु हो गया है। नये रोजगार न मिलने तथा पहले से जारी काम भी बंद होने से पढ़े-लिखे तथा मेहनतकश युवा सरकार से निराश होते जा रहे हैं। बैंकिंग तथा रेलवे जैसे बड़े रोजगारदाता विभागों की दयनीय स्थिति को युवक समझ गये हैं। वे बुरी तरह असमंजस में हैं। इससे भाजपा को झटका लग सकता है।
यदि विपक्षी दल इन समस्याओं को एकजुट होकर लोगों के बीच मुद्दा बनायें तो भाजपा के खिलाफ भारी जनमत हो सकता है लेकिन आपस में विभाजित सपा, बसपा और कांग्रेस चुनावी मौसम में एक-दूसरे पर उसी तरह आक्रामक हो जाते हैं जिस तरह भाजपा के खिलाफ।
यही कारण है कि जनता के परेशान वर्ग भाजपा के मजबूत विकल्प के अभाव में फिर से भाजपा की ओर ही आशन्वित हो पड़ते हैं। कभी साम्प्रदायिक तथा कभी जातीय वर्गों में बंटे इस सूबे के लोग अपने विकास की बातों को भूल जाते हैं। भाजपा यहां के जातियों में बंटे बहुसंख्यक समाज को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के नाम पर एकजुट करने में काफी सफल रही है। वह चाहती है कि उसके पक्ष में यह एकजुटता लोकसभा चुनाव तक किसी भी तरह बनी रहनी चाहिए। गौरक्षा, राम मंदिर, तलाक, कश्मीर को विशेष दर्जा दिलाने वाली धारा 370 या इसी तरह के कई प्रकरणों को जिंदा रखते हुए इसपर बयानबाजी और बहस साम्प्रदायिक माहौल बनाये रखता है। विपक्ष के पास अभी तक कोई ऐसा मजबूत हथियार नहीं जो इन मुद्दों पर भारी पड़े। ऐसे में लोकसभा चुनाव में भी भाजपा बिखरे विपक्ष पर यूपी में भारी पड़ती दिख रही है।
-जी.एस. चाहल.
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