गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव प्रचार और उत्तर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में मतदाताओं को लुभाने और अपनी-अपनी जीत के लिए जो वायदे और घोषणायें नेताओं द्वारा किये गये तथा किये जा रहे हैं उनका इन राज्यों के लोगों की भलाई और विकास से खास लेना-देना नहीं। यह आम रिवाज़ बनता जा रहा है कि झूठे-सच्चे तर्क-वितर्क, प्रलोभन या मन बहलाऊ बातें कर येनकेन प्रकारेण सत्ता हथिया ली जाये। बाद में उसका जबतक हो सके उपभोग किया जाये। तीनों राज्यों के चुनाव के बाद जय-पराजय किसी की भी हो लेकिन नहीं लगता कि स्थिति बहुत-कुछ सुधरेगी।
आज़ादी के बाद देश को जिस दिशा में जाना चाहिए था, हम उसे उधर ले जाने के बजाय भटक गये हैं। इसके लिए जनता और उसके द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि दोनों ही समान भाव से उत्तरदायी हैं। बहुभाषी, बहुधर्मी तथा विभिन्न जातीय समूहों के इस देश में आज़ादी के बाद से ही सभी सरकारों पर कतिपय जातीय अथवा क्षेत्रीय समूहों द्वारा भेदभाव के आरोप लगते रहे हैं। इनमें काफी हद तक सच्चाई भी है। केन्द्र में सबसे लंबे समय तक सत्तासीन कांग्रेस सरकार हालांकि विभिन्नताओं से भरे देश के लोगों को एकता के सूत्र में बांधे रखने का प्रयास करती रही है तथा वह इसमें काफी हद तक सफल भी रही है लेकिन उसके कई नेताओं पर भेदभाव के आरोप लगते रहे हैं।
जातीय और साम्प्रदायिक खाई को वैसे कम करने का लगातार प्रयास होता जा रहा है लेकिन वह कम होने के बजाय बढ़ा है जिससे प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर, मेहनतकश लोगों का यह देश विकास की दौड़ में आगे निकलने के बजाय पीछे घिसटता रहा है। भारतीय संस्कृति की प्रेम और सौहार्द की पहचान आपसी द्वेष और मामूली घटनाओं पर मारकाट तथा खून खराबे की बनती जा रही है। हमारे नेता इस तरह की घटनाओं को सुलझाने के बजाय राजनीतिक हानि-लाभ के चश्मे से देखकर और जटिल बनाने का काम करते रहे हैं।
इससे दोनों पक्ष उत्पीड़ित महसूस करते हैं तथा न्याय के अभाव में इस तरह की मामूली वारदातें आगे चलकर बड़े नासूर का रुप ले लेती हैं, जिन्हें चुनावों के दौरान सत्ता के भूखे नेता फिर से कुरेद कर अपना उल्लू सीधा करने का प्रयास करते हैं। देश के हर सूबे की अलग स्थिति है लेकिन देश की सबसे बड़ी आबादी वाला उत्तर प्रदेश इस समय पूरी तरह साम्प्रदायिक धु्रवीकरण की चपेट में है। जनता एक रहना चाहती है। वह मामूली विवादों को तूल देने के बजाय शांति और सौहार्द चाहती है लेकिन चन्द नेता और धर्मध्वजाधारी इस तरह के मामलों को ठंडा नहीं पड़ने देते। दोनों ही ओर से लोगों को उकसाने की कोशिशे होती हैं।
अयोध्या का राम मन्दिर मुद्दा इसी कारण दशकों के शोर-शराबे और अनेकों लोगों के बलिदान के बावजूद हल नहीं हो पाया। इसी के इर्द-गिर्द चुनावी मौसम में राजनीतिक गोटियां तैयार की जाती हैं और रामभक्त और विरोधी बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं करते। चाहें कांग्रेस या भाजपा जैसे बड़े दल हों या दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां इस समस्या के समाधान में किसी की भी ईमानदार सोच नहीं है।
उत्तर प्रदेश के नगर निकायों में जन सुविधाओं यथा पेयजल, सड़क, जलनिकासी, स्वास्थ्य, परिवहन तथा सफाई आदि सभी का बुरा हाल है। सड़क अतिक्रमण में यहां के आम नागरिकों के समाधान के बजाय, चुनाव जीतने के हथकंडों की अधिक चिंता है। धार्मिक और जातीय गोलबंदी का हर जगह बोलबाला है। ऐसे में विकास बहुत पीछे छूट चुका होता है। जनपद अमरोहा के मुस्लिम बाहुल्य नगर बछरायूं, उझारी, जोया और नौगांवा में कभी भी हिन्दू नहीं पाया। उसी तरह गजरौला और धनौरा में कभी मुसलमान नहीं जीत पाया। साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ये उदाहरण उत्तर प्रदेश में हर जगह हैं। ऐसे में नगर निकायों के विकास या उत्थान की बात करना बेमानी है।
-जी.एस. चाहल.
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