हमारा देश दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में चौथे नंबर पर आ गया है। 180 देशों में यह सर्वे किया गया था। पिछले साल हम इससे बेहतर हालत में थे। 4 साल से स्वच्छता का राग अलापने के बावजूद देश में प्रदूषण घटने के बजाय अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। इसका मूल कारण सर्वेकर्ता तेजी से बढ़ रही आबादी को मानते हैं। जो बिल्कुल ठीक है।
केंद्र या राज्य सरकारों में कोई भी सरकार बढ़ती आबादी से बिल्कुल भी चिंतित नहीं बल्कि हमारे नेता इस सबसे बड़ी समस्या को बिल्कुल दरकिनार कर चुके हैं। हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो बड़े गर्व से कहते हैं कि वह सवा सौ करोड़ की आबादी के नेता हैं। वे देश से विदेशों तक में बार-बार इस संख्या का हवाला देते नहीं थकते। जबकि उनकी पार्टी के कई नेता तो लोगों को अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने की शिक्षा देते हैं। सबसे मजेदार बात यह है कि ऐसे लोगों ने बुढ़ापा आने तक एक भी बच्चा पैदा नहीं किया अथवा कर नहीं पाए। देसी कहावत में इसके लिए कहा जाता है- दूसरे के छप्पर पर कद्दू उगाना।
यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि जब तक बढ़ती आबादी पर विराम नहीं लगेगा तब तक प्रदूषण, गंदगी, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याएं कम नहीं होने वाली बल्कि बढ़ती जाएंगी। पत्ते झाड़ने के बजाय सभी समस्याओं की जड़ बढ़ती आबादी पर प्रहार करने की जरूरत है।
स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, कोर्ट-कचहरी यहां तक कि सड़कों पर जहां भी नजर दौड़ आते हैं लोग ही लोग दिखाई देते हैं। जाम के झाम में जीवन दूभर है। थाने और सरकारी दफ्तर सभी जगह भीड़ ही भीड़ नजर आती है।
सड़कों की चौड़ाई बढ़ाते-बढ़ाते सरकार थक गई। आए दिन सड़कों पर नए वाहन उतरने से भी छोटी पड़ती जा रही हैं। रेलों, बसों मैं बैठने को जगह नहीं मिल रही।
कृषि भूमि पर मकान, उद्योग और सड़कें बनते जाने से अन्न उत्पादन घट रहा है। लोगों को घर नसीब नहीं हो रहा। एक बड़ी आबादी बिना घरों के खुले आकाश के नीचे सोने को मजबूर है। शहरों में छोटे छोटे घरों में कई जगह आदमी के बच्चे और बकरी के बच्चे एक साथ जीवन यापन को मजबूर हैं।
सरकारें खुश हैं। उनका देश सवा अरब की आबादी को पार कर चुका। हम सबसे बड़े लोकतंत्र के ठेकेदार हैं। सरकार जितना प्रयास स्वच्छता के लिए कर रही है यदि इससे आधा प्रयास करके वह सीमित संतान उत्पन्न करने के लिए करें तो देश की अधिकांश समस्याएं आसानी से हल हो सकती हैं। लेकिन वोट की राजनीति के कारण कोई भी दल इसके लिए तैयार नहीं होता। कथित साधु-संतों से भरा यह देश इसके लिए उनसे भी कोई उम्मीद नहीं रखता।
एक-दो एनजीओ इस दिशा में जनजागृति का प्रयास कर रहे हैं। वे लोगों के बीच पहुंचकर समझाने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन इतने से कुछ नहीं होने वाला। यह कार्य तब तक संभव नहीं जब तक चीन की तरह इसके लिए कोई सख्त कानून ना बने। वोट की राजनीति के कारण किसी भी सरकार से यह उम्मीद नहीं की जा सकती।
-जी.एस. चाहल.
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