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इस सीट पर सपा, रालोद और बसपा को साथ लेकर तीनों का संयुक्त उम्मीदवार उतारने के पक्ष में है. |
भाजपा के दिग्गजों को उनके घर में पराजित कर उपचुनाव में गोरखपुर और फूलपुर पर कब्जा करने वाला सपा-बसपा गठबंधन कैराना संसदीय उपचुनाव में भी सफल प्रयोग करना चाहता है। पश्चिम में रालोद को आगे कर सपा जहां आगे बढ़ना चाहती है, वहीं बसपा इस पर खामोश नजर आ रही है।
पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा के हुकम सिंह 5.65 लाख मत प्राप्त कर जीते थे जबकि बसपा 3.29 लाख मतों के साथ दूसरे स्थान पर थी। सपा को डेढ़ लाख वोट मिले थे तथा रालोद को लोगों ने नकार दिया था। रालोद को नकारा जाने का मतलब जाट मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर होना था।
हुकम सिंह की मौत से रिक्त हुई इस सीट पर सपा, रालोद और बसपा को साथ लेकर तीनों का संयुक्त उम्मीदवार उतारने के पक्ष में है। जबकि मायावती अभी खामोश हैं। सियासी पंडितों का मानना है कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव जाट मतदाताओं को गठबंधन की ओर खींचने की भूमिका बनाने के लिए यहां से रालोद नेता जयंत चौधरी को चुनाव लड़ाना चाहते हैं। इसके लिए दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व में वार्ता शुरु हो चुकी है। चौ. अजीत सिंह काफी समय से पश्चिम में जाटों और मुस्लिमों में आयी खटास को कम करने के लिए कई जगह बैठकें कर चुके हैं तथा भाजपा को दोनों समुदायों में दरार पैदा करने वाली पार्टी का नाम देते रहे हैं। उनके इस प्रयास से दोनों समुदायों की दूरी कुछ कम हुई या नहीं, यह कहना मुश्किल है लेकिन राजधानी क्षेत्र में दस वर्ष पुराने ट्रैक्टरों पर पाबंदी, गांवों में बढ़ी बिजली दरों, गन्न भुगतान में रुकावट और फसलों का उचित दाम न मिलने से जाट समुदाय में भी भाजपा के प्रति पहले जैसा लगाव नहीं बल्कि वे नाराज हैं।
उधर बसपा के उपचुनाव से अलग होने की बात से भी पता चलता है कि वह अपने दलित और मुस्लिम समर्थक मतदाताओं को रालोद के साथ देने से आशंकित नहीं लगती। लेकिन सत्ता के लिए भारतीय राजनीति में बेमेल नेताओं और दलों में दोस्ती होती रहती है। मरता क्या ना करता की तर्ज पर यहां के नेता पिछली बातें भूलने से परहेज नहीं करते।
भले ही इस उपचुनाव का विजेता मुश्किल से सात माह के लिए सत्तासीन होगा लेकिन यह सीट भाजपा और सपा गठबंधन के लिए आगामी लोकसभा चुनाव के लिए एक हथियार की तरह काम करेगा। यदि भाजपा यहां फिर से अपना कब्जा बरकरार रखती है तो यह उतना महत्वपूर्ण नहीं होगा जितना उसका चुनाव हारना। गठबंधन की विजय उसका मनोबल बढ़ायेगी तथा तीसरे उपचुनाव में उसकी जीत यह संदेश देने को काफी होगी कि भाजपा को सपा-बसपा और रालोद सत्ता से बेदखल करने का सबसे कारगर साधन है। आगामी संसदीय चुनाव में मतदाताओं पर इसका मोवैज्ञानिक प्रभाव भाजपा के खिलाफ जाएगा।
उधर कांग्रेस इस उपचुनाव में क्या फैसला लेगी, कहा नहीं जा सकता। यदि वह मैदान में उतरती है तब उसे कुछ नहीं मिलने वाला, यदि चुनाव से अलग रहती है तो उसे गठबंधन का मौन समर्थन माना जाएगा। इससे उसके जनाधार को हानि पहुंचेगी। भाजपा की जीत हो या हार उसे यह कहने का मौका मिलेगा कि उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सफाया हो गया है।
भले ही सपा, बसपा और रालोद को साथ लेकर कैराना में भाजपा को परास्त करने की नीति पर काम में लग गयी हो लेकिन अभी भी इन दलों की एकता की गारंटी नहीं हो सकती। गठबंधन में बसपा सुप्रीमो बड़ा सोच समझकर दांव चलेंगी। अपने दलित वोट बैंक को साधे रखना बड़ी चुनौती है। वे इस पर गहतना से विचार कर रही हैं कि रालोद का साथ देने से उनका परंपरागत वोट नाराज तो नहीं होगा। अभी हुए राज्यसभा चुनाव में रालोद के एकमात्र मतदाता द्वारा समझौते के बावजूद उन्हें वोट न मिलने से भी वे असमंजस में हैं। ऐसे में सपा के लिए बसपा और रालोद को साधने में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।
-जी.एस. चाहल.