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पंजाब, महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल में भी भाजपा की दुर्गति ही हुई है. |
लोकसभा चुनाव से 11 माह पूर्व देश के अलग-अलग राज्यों में हुए चार संसदीय और दस विधानसभा सीटों के उपचुनाव में भाजपा के खिलाफ आये नतीजों का आगामी लोकसभा चुनावों पर गहरा असर पड़ेगा। यह संकेत किसी एक राज्य से नहीं आया बल्कि पूरे देश के उपचुनावों में भाजपा के खिलाफ हवा का रुख स्पष्ट दिखाई दिया है। शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में भाजपा सरकार के खिलाफ जनादेश गया है। राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों के साथ दिसम्बर में भी हो सकते हैं लोकसभा चुनाव।
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में जहां 80 लोकसभा सीटें हैं। पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड तथा जम्मू-कश्मीर जैसे उत्तर भारत के छह राज्यों की कुल मिलाकर सीटें भी इससे कम पड़ती हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़ और नगालैंड जैसे तीन राज्यों की सीटें भी इसमें जोड़ें तो कहीं जाकर नौ राज्यों की सीटें उत्तर प्रदेश के लगभग होती हैं। ऐसे में उत्तर प्रदेश केन्द्र को सत्ता का प्रवेश द्वार कहा जाता है। 2014 में भाजपा ने यहां 73 सीटें हासिल कर केन्द्र में भारी बहुमत से सत्ता हासिल की। यहां बने सपा, बसपा, कांग्रेस और रालोद के महागठबंधन ने जिस तरह तीन लोकसभा और एक विधानसभा के उपचुनावों में भाजपा से छीनने में सफलता हासिल की, उससे स्पष्ट हो गया है कि केन्द्र की सत्ता के प्रवेश द्वार पर महागठबंधन ने कब्जा जमा लिया है और भाजपा का 2019 में केन्द्र की सत्ता तक जाने का रास्ता रोक दिया है। संसदीय और पिछले साल विधानसभा चुनाव में चली भाजपा की लहरें शांत पड़ गयी है।
केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि पंजाब, महाराष्ट्र, झारखंड, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल में भी भाजपा की दुर्गति ही हुई है। इन उपचुनावों का संदेश किसी एक राज्य नहीं बल्कि यह अखिल भारतीय संदेश है। जिसकी गूंज पर भाजपा को गहन आत्मावलोकन की आवश्यकता है। जिस कांग्रेस को वह चार साल से पानी पी-पीकर कोस रही थी उसकी सीटें उपचुनाव में बढ़ी हैं तथा भाजपा विरोधी तृणमूल कांग्रेस, राजद, झामुमो तथा वामपंथियों का प्रदर्शन सकारात्मक रहा है।
इन उपचुनावों के बाद अब नवम्बर-दिसम्बर में राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं के चुनाव हैं। मध्य प्रदेश तथा राजस्थान देश के बड़े राज्य हैं जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पूरी सीटें समेट ली थीं और विधानसभा चुनाव में भी भारी विजय हासिल की थी। फिलहाल इन दोनों राज्यों में सत्ता विरोधी लहर है। किसान सड़कों पर हैं, सरकार उनकी सुनवाई नहीं कर रही। देश के एक सौ से अधिक किसान संगठन आंदोलन में शामिल हैं। कांग्रेस सहित कई विरोधी दल भी उनके समर्थन में हैं। 31 मई को आये 14 सीटों के उपचुनाव के भाजपा विरोधी परिणामों ने आग में घी का काम किया है जिससे आंदोलनकारी उत्साहित हैं, किसान आंदोलन केवल मध्यप्रदेश और राजस्थान ही नहीं बल्कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश सहित कई बड़े राज्यों में शुरु हो गया है। किसानों की प्रमुख मांगें कर्ज मुक्ति, फसलों का लाभकारी मूल्य तथा गन्ने का बकाया भुगतान है। बढ़ते डीजल मूल्य ने किसानों में ताजा आक्रोश उत्पन्न कर उन्हें सरकारों के खिलाफ लामबंद करने में अहम भूमिका निभाई है। सरकार के लिए इन समस्याओं से निपटना आसान नहीं। वह चार साल से किसानों को झूठे आश्वासनों से बहकाती रही है। जिससे किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। ऐसे में इन दोनों राज्यों में भाजपा की पराजय की हवा तेजी से चल रही है। चुनाव पूर्व आकलनकर्ता एजेंसियां इन राज्यों में कांग्रेस को मजबूत बता रही हैं। यदि ऐसा हुआ तो 2019 का चुनाव भाजपा की उल्टी गिनती की रफ्तार बढ़ाने का काम करेगा।
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जब सत्ता की दीवारों में दरारें दिखने लगती हैं तो मौन असंतुष्ट अपनी भड़ास निकालनी शुरु कर देते हैं तथा कई आयाराम-गयाराम नेता अपना सुरक्षित ठिकाना तलाश उधर का रुख करने की ठान लेते हैं। भाजपा के कई मजबूत सहयोगी पहले ही अपनी उपेक्षा के कारण उसे अपनी सीट राजद से छिनवाने के बाद भाजपा से अलग राह के लिए निकलने को मजबूर हैं। उन्हें भाजपा से शिकायत है कि मोदी वायदों से मुकर गये हैं। संघ तथा उसके सह-संगठन विश्व हिन्दू परिषद तथा किसान संघ को भी सरकार से शिकायत है कि मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता और किसानों को सरकार ने दरकिनार कर नये-नये मुद्दे उठाकर एक अच्छे मौके को गंवा दिया। चुनावों में वोटों के लिए गांव, गरीब और किसान की बात करने वाली भाजपा कुर्सी मिलते ही उन्हें भूल नोट वाले पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बन गयी। ऐसे में कांग्रेस, सपा, बसपा और रालोद को दरकिनार करने वाली जनता भाजपा के खिलाफ फिर से उनके साथ खड़ी हो गयी।
-जी.एस. चाहल.