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रणनीतिकार दलित-मुस्लिम गठजोड़ के ताजा प्रयास को विफल करने में हर स्तर तक जाने से नहीं चूकेंगे. |
भाजपा नेता भले ही कुछ भी बयान दे रहे हों लेकिन कैराना, नूरपुर, फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनावों में उन्हें मिली सौ फीसदी हार के बाद बुआ-बबुआ के गठजोड़ उन्हें चिंता में डालकर चुनाव के लिए गहन मंथन और नये सिरे से विचार करने को मजबूर कर दिया है। भाजपा का कबीर की शरण लेना और योगी का एएमयू में दलितों का मुद्दा उठाना उसी धारणा का संकेत है। अभी चुनाव में नौ या दस माह बाकी हैं। इस अंतराल में भाजपा और आरएसएस के रणनीतिकार दलित-मुस्लिम गठजोड़ के ताजा प्रयास को विफल करने में हर स्तर तक जाने से नहीं चूकेंगे।
वैसे उपचुनावों में जो संदेश गया है वह केवल दलित-मुस्लिम एकता का ही परिणाम नहीं बल्कि पिछड़े वर्ग के ऐसे समुदाय ने भी भाजपा के खिलाफ मतदान किया, जो 2014 के चुनाव में भाजपा के साथ थे। यह रुझान तभी कारगर बना रह सकता है जबतक मायावती, अखिलेश और चौ. अजित सिंह एक-दूसरे के हितों को समान तरजीह देंगे। फिलहाल तीनों में यह जज्बा कायम लगता है। तथा तीनों ने ही सीटों के बंटवारे पर नम्र होकर चलने का आहवान एक-दूसरे को कराया है। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भाजपा की मार के दर्द की टीस इन तीनों को ले-देकर एक साथ रखने में सबसे कारगर सिद्ध हो रही है। आगे कहीं इसकी पुनरावृत्ति न हो जाये, उससे बचाव के लिए एक-दूसरे का हाथ थामना जरुरी है। ऐसे में भाजपा इसे तोड़ने के लाख प्रयास भी कर ले, गठबंधन टूटना नामुमकिन है।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, सपा और रालोद उसे साथ लेना चाहते हैं और सीट बंटवारे में उसके साथ उदारता के भी पक्षधर हैं लेकिन मायावती अभी इस बारे में खामोश हैं। यदि वे उसे साथ लेने को खुलकर सामने आयेंगी भी तो सीट बंटवारे में समझौता आसान नहीं। वे मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा छत्तीसगढ़ आदि में भी बड़े हिस्से की मांग रखेंगी। वे इन राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेताओं से बात कर रही हैं। हरियाणा, दिल्ली, उत्तराखंड में भी वे अपने उम्मीदवार उतारेंगी। मध्य प्रदेश के लिए वे खुलकर सामने आयी हैं। उनका कहना है कि सूबे में कांग्रेस सम्मानजनक हिस्सा देगी तो वे गठबंधन को तैयार हैं अन्यथा 230 सीटों पर उम्मीदवार उतार देंगी। मायावती की बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षा गठबंधन में व्यवधान उत्पन्न कर सकती है। वे केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि अखिल भारतीय नेतृत्व के स्वप्नलोक में विचरण करने लगी हैं।
राजस्थान और मध्य प्रदेश विधान सभाओं के चुनाव चालू साल के अंत तक संपन्न होने हैं। इन राज्यों में ताजा सर्वे संकेत दे रहे हैं कि यहां भाजपा की हालत कमजोर है और कांग्रेस बढ़त की ओर है। इन राज्यों के चुनावी परिणाम भी भाजपा विरोधी गठबंधन के अस्तित्व की स्थिति पर प्रभाव डालेंगे। यह तो निश्चित है कि इन राज्यों में बसपा और सपा भी अपने-अपने उम्मीदवार उतारेगी। यह अभी नहीं कहा जा सकता कि ये कितनी सीटों पर लड़ेंगे। यह भी हो सकता है कि ये कांग्रेस को भाजपा का भय दिखाकर सीटों पर आपसी तालमेल बिठा लें। लेकिन कांग्रेस अपनी कितनी सीटें उन्हें देगी, यह बड़ा पेचीदा सवाल है।
यदि समझौता नहीं हुआ और बसपा या सपा में से किसी एक या दोनों ही दलों ने एक चौथाई सीटों पर भी उम्मीदवार उतार दिए तो यह कांग्रेस के लिए बहुत कठिन होगा और ऐसे में भाजपा दोनों राज्यों में फिर से कब्जा करने में सफल हो जाएगी। यह उसे लोकसभा चुनाव में लाभ दिलाने के लिए अच्छा अवसर होगा। इसलिए बसपा और सपा ने यदि गंभीरता से इसपर विचार नहीं किया तो भाजपा की राह रोकना आसान नहीं होगा। इसके विपरीत परिणाम उत्तर प्रदेश में भी बुआ-बबुआ को भुगतने पड़ेंगे।
कर्नाटक विधानसभा चुनावों में जेडीएस से समझौता कर बीस सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर मायावती ने भाजपा को ही लाभ पहुंचाया। उसके उन्नीस उम्मीदवार हार गए। एकमात्र विधायक को गठबंधन में मंत्री बनाए जाने पर खुशी भले ही महसूस करें लेकिन उनका यही रवैया आगे भी जारी रहा तो उसका लाभ गठबंधन के बजाय भाजपा को ही होगा। यदि मायावती चाहती हैं कि गैर भाजपा-गैर कांग्रेस गठजोड़ सत्ता में आए तो उसके लिए लंबी रणनीति की जरुरत है। प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा किसी भी नेता का अधिकार है लेकिन समय आने पर समयोचित कदम उससे महत्वपूर्ण बात है। यदि वे भाजपा और कांग्रेस दोनों को परास्त करना चाहती हैं तो दोनों से एक साथ लड़ने के बजाय पहले किसी एक को साथ ले दूसरे को परास्त करने का निर्णय लें।
-जी.एस. चाहल.