बहुत हो चुकी मोदी के मन की बात अब जनता की बारी है

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पांच वर्षों से अपने ही मन की बात सुनाने वालों को अब जनता भी अपने मन की सुनाने को तैयार है.
चुनावी घोषणा-पत्र में चुनाव के दौरान सभी दल जनता से कई वायदे करते हैं। देखने में आया है कि ऐसी घोषणाओं और वायदों में से कम ही पूरे किए जाते हैं। फिर से लोकसभा चुनाव आने वाला है। इस बार भी तरह-तरह की घोषणाओं के पुलन्दे जनता के सामने आएंगे। विजयी दल से जनता अपेक्षा करती है कि वह अपनी घोषणाओं को अमलीजामा पहनाएं। वादाखिलाफी करने वालों के साथ जनता क्या सलूक करे, इसके लिए हमारे संविधान ने वोट का अधिकार दिया है। चुनाव के मौके पर गेंद जनता के पाले में होती है, यह उस पर निर्भर करता है कि वह किसके सिर ताज बांधे और किसे दंडित करे।

2014 के लोकसभा चुनाव में जिन बड़े मुद्दों पर भाजपा सत्ता में घनघोर सफलता के साथ आयी, उनमें भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, विदेशी बैंकों में जमा धन, आतंकवाद जैसी समस्याओं को समापत करना आदि शामिल थे। राम मंदिर निर्माण, कश्मीर से धारा 370 हटाना तथा किसानों की आय डेढ़ गुना करना भी इसी में शामिल था।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह अपनी अधिकांश प्रचार सभाओं में लोगों से सवाल करते थे कि  बेरोजगारी दूर होनी चाहिए या नहीं, कालाधन विदेशों से आना चाहिए या नहीं, भ्रष्टाचार खत्म होना या नहीं, आतंकवाद का नाश होना चाहिए कि नहीं? आदि-आदि। ये लोग यह भी प्रचार कर रहे थे कि कालाधन बाहर से लाकर सभी लोगों को पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपए दिए जा सकेंगे। पन्द्रह लाख रुपयों वाली बात को आरएसएस तथा भाजपा के कार्यकर्ता बड़े जोश-ओ-खरोश के साथ लोगों में प्रचारित कर रहे थे जबकि योगाचार्य रामदेव के परमभक्त और मेरे एक घनिष्ठ मित्र सारे कालेधन को बाहर से लाने और गरीबी दूर करने का दावा करते फिर रहे थे।

जिन सवालों को 2014 में भाजपा नेता कांग्रेस और विपक्षी दलों से पूछ रहे थे, अब उन्हीं सवालों का जवाब विपक्ष और देश की जनता भाजपा से मांगेगी। बेरोजगारी भाजपा सरकार का कार्यकाल पूरा होते-होते रिकार्ड पर है। नोटबंदी और जीएसटी ने उसके लिए कोढ़ में खाज का काम किया है। पहले से रोजगार से जुड़े करोड़ों लोग बेरोजगार होकर घर बैठ गए। सरकारी नौकरियों के दरवाजे छोटे लोगों के लिए धीरे-धीरे बंद किए जा रहे हैं। रेलवे, रोडवेज, स्वास्थ्य आदि सभी विभागों में भारी भरकम रिक्तियां, जिन्हें या तो खाली छोड़ रखा है या संविदा पर भर्ती का तरीका अपनाया जा रहा है।

स्विस बैंकों से धन लाने के बजाए वहां एक साल में ही भारतीयों का धन डेढ़ गुना हो गया है। जिन लोगों की (धन जमा करने वालों की) सूची यूपीए सरकार के समय आ गयी थी, उनके नाम भाजपा सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा होने के करीब पहुंचने तक भी उजागर क्यों नहीं किए? इसपर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही मौन हैं। जनता सवाल करेगी कि कालाधन तो नहीं आया लेकिन कालेधन वालों की सूची के नामों का क्या हुआ? कम से कम उन के नाम तो उजागर कर ही देते।

इससे यह तो पता चल ही जाता कि वे कौन लोग हैं? नाम छुपाने से तो यही संदेश जा रहा है कि उसमें सत्ता से जुड़े ताकतवर लोगों के नाम होंगे।

भय, भूख और भ्रष्टाचार तमाम अपराधों के जन्मदाता हैं। यदि सरकार इनपर अंकुश लगाने में सफल नहीं हो सकती तो अपराध मुक्त देश की कल्पना करना भी मुमकिन नहीं। बढ़ती आबादी भी एक बड़ी समस्या है। इसकी ओर किसी भी  राजनीतिक दल की निगाह नहीं। इसके लिए साहस दिखाने की जरुरत है। विशाल बहुमत की सरकार का साहस इस बड़ी समस्या के सामने क्यों जवाब दे रहा है जबकि साहसी फैसले लेने के ढोल पीटे जाते रहे हैं।

सरकार समर्थक तमाम खबरिया चैनलों ने एक बार फिर से साम्प्रदायिक विवादों को हवा देने का काम शुरु कर दिया है। किसानों पर बिजली की दरों का बोझ बढ़ाने और उर्वरकां से लेकर कीटनाशकों तथा तमाम कृषि यंत्रों पर जीएसटी की आड़ में अंधाधुंध कर लगाने के बावजूद भाजपा किसान कल्याण रैलियां कर एक बार उन्हें फिर से बरगलाने में जुट गयी है। नेता समझ रहे हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में उनके वाग्जाल में फंसने वाली जनता को बिना कुछ किए भी फिर से फुसलाकर सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन पांच वर्षों से अपने ही मन की बात सुनाने वालों को अब जनता भी अपने मन की सुनाने को तैयार है।

-जी.एस. चाहल.