अपने पिता की राजनैतिक विरासत गंवा बैठे अजीत सिंह?

ajit singh politics
दशकों से चल रही गठबंधन राजनीति को छोटे चौधरी समझने में विफल रहे हैं.
आजाद भारत के सबसे बड़े किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री चौ. चरण सिंह के बेटे रालोद प्रमुख चौ. अजीत सिंह अपने पिता की राजनैतिक विरासत को पूरी तरह अपने हक में बनाए रखने में विफल रहे तथा उत्तर भारत के किसानों का विश्वास भी उनसे शनैः शनैः उठता चला गया। इसके पीछे जहां उनके सजातीय चरणसिंह वादियों की सत्तालिप्सा बड़ा कारण थी, वहीं विज्ञान के क्षेत्र में काम करने वाले चौधरी अजीत सिंह का देश, विशेषकर उत्तर प्रदेश की ठेठ जातीय राजनीति की गंभीरता से अनजान होना भी बड़ी वजह रहा है। उन्हें बार-बार यहाँ के घाघ नेताओं की धूर्त चालाकियों का शिकार होना पड़ा तथा यह कहने में भी कोई बुराई नहीं कि वे देश, खासकर उत्तर प्रदेश के नेताओं को अभी तक समझ पाने में विफल रहे। यही कारण रहा कि अपने पिता द्वारा छोड़े मजबूत राजनीतिक मैदान को वे धीरे-धीरे संकुचित करते चले गए। आज स्थिति यह है कि पिछड़ों तथा किसानों पर मजबूत पकड़ के बजाय अजीत सिंह अपने सजातीय मतदाताओं को भी काबू में रखने में सफल नहीं रहे। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनका तमाम राजनीतिक जीवन उनके पिता की तरह बेदाग है। उनपर केवल  आरोप है तो यही है कि वे कभी भाजपा, कभी कांग्रेस तथा कभी सपा की ओर झुकते रहे हैं। जबकि ऐसा देश के अधिकांश नेता करते रहे हैं बल्कि वे दल-बदल भी करते रहे हैं। मुलायम सिंह यादव, उनके बेटे अखिलेश यादव, मायावती जैसे तमाम नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप बल्कि कई मामले लंबित हैं। लेकिन वे जातीय संतुलन और उचित प्रबंधन की क्षमता के बल पर जनसमर्थन बनाने में सफल हैं। ऐसे कौनसे कारण हैं कि चौ. अजीत सिंह अपने सजातीय मतों को भी अपने साथ जोड़े रखने में सफल नहीं हो पा रहे। वे यदि मतदाताओं, विशेषकर किसानों की नब्ज पहचानने का गुर जानते होते तो कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश की धरती पर मजबूत कदम जमाए रखते।

वैसे तो पूरे भारत में एक से बढ़कर एक घाघ कूटनीतिज्ञ नेता मौजूद हैं लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में मौकापरस्त नेता कुछ ज्यादा ही हैं। चलती गाड़ी में सवार होने वाले नेताओं की यहां भरमार है। यहां यह कोई मायने नहीं रखता कि ईमानदार और जनसेवा करने वाले नेता को लोग विजयी बनायेंगे।

धर्म और जातीय राजनीति यहां बदस्तूर जारी है। जहां राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा ने उसे साम्प्रदायिक बनाने और क्षेत्रीय नेताओं ने जातीय आधार बनाये रखने में पूरा प्रयास किया है। यही दौर आज भी जारी है। ऐसे मामलों को भुनाने में जो सिद्धहस्त है वही सत्ता प्राप्त करता रहा है।


चौ. चरण सिंह के चारपाइ पर गिरते ही उनकी राजनीतिक विरासत को हड़पने वाले उत्तर प्रदेश से हरियाणा तक कई क्षत्रप उत्पन्न हो गए। चौ. अजीत सिंह और उनकी बहन सरोज वर्मा में ही इसके लिए विवाद था। सरोज की असमय मृत्यु से भले ही भाई-बहन विवाद खत्म हुआ लेकिन चौ. चरण सिंह के पुराने शिष्य मुलायम सिंह यादव ने स्वयं को उनका वारिस घोषित कर उत्तर प्रदेश की किसान राजनीति पर कब्जा जमाने में सफलता हासिल की।

उधर चौ. चरण सिंह के नाम के सहारे किसानों का अभूतपूर्व समर्थन पाने वाले भाकियू सुप्रीमो चौ. महेन्द्र सिंह टिकैत को अपने साथ मिलाये रखने में भी चौधरी अजीत सिंह सफल नहीं हो सके। यह उनके राजनीतिक कुप्रबंधन की अकुशलता का बड़ा प्रमाण है। इसी कारण टिकैत के चन्द सत्तालोलुप शिष्यों ने उनके बेटों को आगे कर राजनीति में कदम रखने का प्रयास किया। टिकैत के एक भी उम्मीदवार की जमानत तक नहीं बची। लेकिन वह छोटे चौधरी की राजनीति को चौपट करने का काम कर गए। यही नहीं इसका खामियाजा भाकियू संगठन को भी भुगतना पड़ा। उसका जनाधार और हैसियत बहुत नीचे चली गयी।


उधर हरियाणा में चौ. देवीलाल ने चरण सिंह का वारिस स्वयं को घोषित कर दिया तथा सूबे की किसान राजनीति पर अजीत सिंह को निष्प्रभावी बनाने में सफलता पायी। भले ही आज उनके परिवार में आपसी उठापटक ने उनकी विरासत को तहस-नहस कर दिया।

देश में दशकों से चल रही गठबंधन राजनीति को छोटे चौधरी समझने में विफल रहे हैं। कई बार धोखा खाने के बावजूद वे सपा नेताओं के झांसे में आते रहे हैं जबकि उनके लिए सबसे मुफीद कांग्रेस रही है। उतार-चढ़ाव को नजरअंदाज कर उन्हें कांग्रेस के साथ ही रहना चाहिए था। 2019 में उन्हें कांग्रेस के साथ मिलकर मैदान में आना चाहिए। बार-बार इधर-उधर लुढ़कने से यही उनके हक में है। आज भी उत्तर प्रदेश में उनके कट्टर समर्थकों की खासी तादाद है। लम्बे  राजनीतिक सफर में उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिल चुका होगा।

~जी.एस. चाहल.