जनता बीमार और टॉनिक उद्योगपतियों को

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जब देश की कमाऊ युवा आबादी खाली बैठी रहेगी तो न तो उद्योगों के उत्पाद बिकेंगे और न ही राजस्व बढ़ेगा.
भाजपा सरकार द्वारा बीते पांच वर्षों में जिस प्रकार आर्थिक नीतियों में बदलाव किए गए उनके परिणाम देश के लोगों के सामने तेजी से आने शुरु हो गये हैं। जहां ऑटोमोबाइल सेक्टर भारी मंदी की ओर अग्रसर है, वहीं अधिकांश क्षेत्रों में सुस्ती का आलम है। देश की तरक्की के सूचक ट्रकों की बिक्री में पिछले साल के मुकाबले साठ फीसदी गिरावट देश की कमजोर वित्तीय स्थिति का स्पष्ट प्रमाण है। देश को सत्तर फीसदी ट्रक बेचने वाली दिग्गज निर्माता कंपनियों टाटा मोटर्स, अशोक लीलैंड, महेन्द्रा एण्ड मेहन्द्रा ने अगस्त माह के अंत तक एक साल में 12909 ट्रक ही बेचने में सफलता हासिल की है जबकि गत वर्ष इन कंपनियों ने करीब 90 हजार ट्रक बेचे थे।

इन दिग्गज कंपनियों को मजबूरी में कई-कई दिन तक अपने प्लांट बंद करने पड़ रहे हैं। अशोक लीलैंड ने अपने पांच प्लांटों में उत्पादन अस्थायी रुप से बंद करने का एलान किया है। उसने एन्नोर प्लांट को 16 दिन, तमिलनाडु के होसुर प्लांट को पांच दिन, राजस्थान के अलवर प्लांट को 10 दिन, महाराष्ट्र के भंडारा प्लांट को दस दिन और उत्तराखंड के पंतनगर प्लांट को तो 18 दिन तक बंद करने का एलान किया है। यदि स्थिति नहीं सुधरी तो कंपनी इस अवधि को और भी बढ़ा सकती है। पहले ही बिक्री को खड़े ट्रकों की तादाद बढ़ाना खतरे को और बढ़ाना है।
टीवीएस समूह, मारुति सुजुकी और हीरो मोटोकॉर्प ने अगस्त माह में ही उत्पादन कम कर दिया और हजारों मजदूरों की छंटनी की गयी। ट्रकों और वाहनों की बिक्री का कारण कई विशेषज्ञ जीएसटी की बढ़ी दर को मान रहे हैं। यह एक कारण है लेकिन इससे भी बड़ा कारण है बढ़ती    बेरोजगारी और आम आदमी की कम होती आय। ट्रक कच्चा और तैयार माल ढोने का देश में सबसे बड़ा साधन है। ट्रांसपोर्टर्स की ऑर्डर मिलने की कमी पिछले डेढ़ साल से शुरु हुई जिसने अब आकर गति पकड़ ली। बीते एक वर्ष से माल ढुलाई का काम घटने की खबरें आ रही थीं। कई ट्रक मालिक बहुत परेशान थे। उनका कहना था कि वे कर्ज की किश्तें तक भुगतान करने में असमर्थ हैं। बहुत से लोग तो कर्जदाता फर्मों को अपने ट्रक तक वापस करना चाहते थे। इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। घटती मांग के कारण यह स्थिति बन रही थी और मांग घटने का प्रमुख कारण था आम आदमी की घटती क्रय शक्ति। उसकी जेब खाली होती जा रही थी। 
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देश के सरकारी अर्थ-शास्त्रियों और आर्थिक प्रबंधकों को अब पता चला है जब बड़े-बड़े उद्योपगतियों की कंपनियों पर खतरा मंडराना शुरु हुआ है। बैंकों की नकदी कम होती जा रही है। भारी भरकम जीएसटी लगाने, उसके अलावा तमाम तरह के सेस थोपने के फैसलों के बावजूद सरकार राजस्व उपलब्धता का रोना रो रही है। सरकार ने पिछले पांच साल में आम आदमी की जेब खाली कराने और रोजगार समाप्त कर गरीबों को और गरीब करने तथा बेरोजगारी को बढ़ावा देने की नीतियां बनायी हैं। जिसका नतीजा आज औद्योगिक सेक्टर में सुस्ती और मंदी के रुप में हमारे सामने हैं।

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सरकार का सारा ध्यान अपना राजस्व बढ़ाने और बड़े उद्योगों पर है लेकिन नीति नियंताओं को पता होना चाहिए जब देश की कमाऊ युवा आबादी खाली बैठी रहेगी तो न तो उद्योगों के उत्पाद बिकेंगे और न ही राजस्व बढ़ेगा बल्कि हर क्षेत्र का विकास अवरुद्ध होगा। सरकारी उपक्रमों को एक-एक कर नीलाम करने, निजिकरण को बढ़ावा देने, रिजर्व बैंक के रिजर्व मनी को बार-बार निकालने, कृषि सेक्टर को महंगा बनाने तथा बेरोजगारों की लगातार बढ़ रही संख्या तो देश की स्थिति के सुखद संकेत नहीं। चुनावी हथकंडों से सत्ता हासिल की जा सकती है लेकिन देश की तरक्की में मौलिक अर्थनीतियां ही काम आती हैं।

-जी.एस. चहल.