फिर शुरु हुई गन्ने की लूट, स्पष्ट गन्ना नीति नहीं

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बीते कुछ सालों में गन्ना किसानों की आय बढ़ने के बजाय कम हो गयी है.
सरकार जो भी रही लेकिन उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों की समस्यायें ज्यों की त्यों हैं। कोई भी सरकार स्पष्ट गन्ना नीति नहीं बना पायी। इससे छोटे और मझले किसान अधिक घाटे में हैं। उन्हें प्रति वर्ष अपना अधिकांश गन्ना सरकारी मूल्य से बहुत कम बल्कि कभी-कभी आधा कीमत पर लुटाना पड़ता है। समय से मिल न चलने, भुगतान में विलम्ब तथा समय पर पर्चियां न मिलना इसकी मूल वजह है। गुड़ कोल्हू तथा गन्ना क्रेशरों पर छोटे किसान ज्यादतर गन्ना डालते हैं। ये मिलों से पूर्व चलते हैं। नकद भुगतान करते हैं और बिना पर्ची के कभी भी कितना भी गन्ना यहां डाला जा सकता है। जहां तक तौल में धांधली का सवाल है उसमें मिल, क्रेशर तथा कोल्हू कहीं भी ईमानदारी का भरोसा नहीं। यहां भी छोटे और भोले-भाले किसानों को ही ज्यादा चपत लगती है। किसानों की पैरवी करने वाली गन्ना समितियां भी गन्ने की मिठास की लूट में शामिल पायी गयी हैं। तौल क्लर्कों में दोनों पक्षों से शामिल किए जाते हैं लेकिन गन्ने की मिठास ही ऐसी है कि उसकी लूट में हर कोई शामिल होना चाहता है। किसान की खून-पसीने से गन्ने में आने वाली इस मिठास की लूट को लूटने वाले मोटे होते जाते हैं और किसान सूखता जाता है।

बड़े किसानों की माली हालत गन्ना भुगतान में देरी को सहन कर सकने लायक होती है। इस तरह के किसान मुश्किल चार-पांच फीसदी हैं, जबकि 95 फीसदी किसान आर्थिक स्तर पर इतने सुदृढ़ नहीं। उन्हें रबी की फसल के लिए खेत खाली करने की जरुरत होती है। रबी के लिए बीज, खाद और जुताई आदि के खर्च के साथ जाड़े में काम आने वाले जरुरी कपड़ों तथा बच्चों की फीस और नियमित खर्चों के लिए भी पैसा चाहिए। कम भूमि वाले किसान को गन्ने के अलावा दूसरा साधन नहीं होता। गन्ना भी नकद बिके तभी बात बन सकती है। मिल देर से चलें और भुगतान लटका रहे तो कैसे काम चलेगा? इसके लिए उसे क्रेशर अथवा कोल्हू के अलावा दूसरा साधन नहीं दिखता। जहां गन्ना मिल के मुकाबले आधे-पौने दामों में जाता है। यह देश की जीडीपी को बल प्रदान करने वाले के साथ घोर अन्याय होता है। जो अमीरी-गरीबी की खाई को लगातार गहरी करता जा रहा है।
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सरकार चाहे तो किसान को इस संकट से उबार सकती है। कहती सभी सरकारें आ रही हैं लेकिन करती कोई नहीं। छह साल से केन्द्र तथा ढाई साल से राज्य की भाजपा सरकार भी किसानों की आमदनी दोगुना करने का राग अलाप रही है। परन्तु गन्ना किसानों की आय बढ़ने के बजाय कम हो गयी है। किसान महीनों से गन्ना मूल्य बढ़ाने की मांग कर रहे हैं, मिल चल रहे हैं, क्रेशरों और कोल्हुओं पर छोटे किसानों का एक तिहाई गन्ना पहुंच चुका अभी तक सरकार ने गन्ना मूल्य घोषित करने की जरुरत महसूस नहीं की। यह भी पता नहीं कि मूल्य बढ़ेगा, घटेगा अथवा वहीं रहेगा?

गन्ना मूल्य बढ़वाने की मांग जायज है। सरकार ने कृषि क्षेत्र के नलकूपों के बिजली बिल बढ़ाये हैं। बीज, कीटनाशक और उर्वरक महंगे हैं। डीजल और लुब्रीकेंट महंगे होने से जुताई, बुवाई और सिंचाई पर खर्च बढ़ गया है। तमाम कृषि उपकरण महंगे हुए हैं। ऐसे में यदि किसान गन्ना मूल्य चार सौ से 450 रुपये तक की मांग कर रहे हैं तो क्या गलत है? चीनी और शीरे से बनने वाली मिठाईयां तथा शराब महंगे हुए हैं। उनपर सरकार मनमाने कर वसूल रही है। यह सब गन्ने की मिठास का प्रतिफल है। यह मिठास, धूप, बरसात और कड़ाके की ठंड में परिश्रम करते किसानों की हड्डियों की मेहनत से रिसकर आयी है। जिसे चूसने को सभी लालायित रहते हैं। शहरी और कस्बायी आबादी से गुजरती गन्ना लदी गाड़ियों से गन्ने खींचने वाले उनके पीछे ऐसे भागते हैं जैसे यह मुफ्त का माल हो। गन्ने और उसके रस की मिठास से बने पदार्थों का आनन्द लेने वालों को इस पर भी चिंतन करना होगा कि इस मोहक, सुस्वाद प्रदाता पदार्थ को उत्पन्न करने वाले किसान को क्या उसकी वाजिब कीमत मिल रही है?

-जी.एस. चाहल.