देश की बैंकिंग व्यवस्था पटरी से उतरी

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एक-एक कर हजारों शाखाओं का पांच साल में अस्तित्व समाप्त हो गया.
बड़े-बड़े घोटालों और बढ़ते एनपीए के कारण सार्वजनिक बैंकों का दायरा सिमट रहा है। बीते पांच साल में 26 सरकारी बैंकों की 3427 शाखायें समाप्त कर दी गयी हैं। इस दौरान छह बैंकों का एसबीआई में विलय कर उनका अस्तित्व ही खत्म कर दिया गया है। परिणाम स्वरुप लाखों खाताधारकों को इससे भारी दिक्कतें आयीं और हज़ारों लोगों का रोजगार बंद हो गया। उधर पीएमसी बैंक में लाखों खाताधारकों के करोड़ों रुपये फंसते से महाराष्ट्र में हाहाकार मचा है। सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम बैंकों से समय पर वांछित रकम न मिलने की शिकायतें बढ़ रही हैं। एक तरह से सरकारी बैंकिंग व्यवस्था से लोग असमंजस में हैं। मजबूरी में ही वहां रुपये जमा कर रहे हैं। बैंक शाखाओं के अधिकारियों पर उच्च स्तर से घरेलू निवेश को बढ़ावा देने का दबाव है। बाजार में आयी मंदी के चलते कारोबार आदि के लिए बैंकों से कर्ज लेने से भी लोग हाथ खींच रहे हैं अलबत्ता बैंक शाखाओं में भीड़ नहीं है।

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक दस सरकारी बैंकों को चार बैंकों में मिलाने पर अभी भी काम चल रहा है। यह यहीं रुकने वाला नहीं है। अधिकांश सरकारी बैंकें भारी घोटालों और एनपीए के चलते घाटे में चल रही हैं। ऐसे में नहीं कहा जा सकता कि केवल दस बैंकों को ही दूसरी बैंकों में मिलाया जायेगा। उधर सरकारी बैंकों के कर्मचारी संगठन 'अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (AIBEA)' के महासचिव सीएच वेंकटचलम का दस बैंकों को दूसरी बैंकों में मिलाने पर कहना है कि इससे सात हजार शाखायें और प्रभावित होंगी। इनमें से ज्यादातर महानगरों और शहरों की होंगी।

यह बात समझ से परे है कि स्टेट बैंक जैसी सबसे बड़ी सरकारी बैंक स्टेट बैंक की सबसे अधिक 2568 शाखाओं को विलय और शाखाबन्दी का सामना करना पड़ा है। रिजर्व बैंक से मिली सूचना के मुताबिक वित्त वर्ष 14-15 में 90 शाखायें, 15-16 में 126 शाखायें, 16-17 में 253 शाखायें, 17-18 में 2083 शाखायें, 18-19 में 875 शाखायें या बंद की गयीं या दूसरी बैंकों में समाहित कर दी गयीं। इस प्रकार बीते पांच सालों 26 सरकारी बैंकों की 3427 शाखाओं का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया। आरटीआई के तहत आरबीआई से बैंकों की इतनी शाखाओं को बंद किए जाने का कारण पूछा गया तो गोपनीयता का हवाला देकर बताने से इंकार कर दिया गया। 

सरकार की ओर से जिम्मेदार बार-बार तर्क देते रहे हैं कि देश में बड़े बैंक बनाने हैं जिसके लिए छोटे बैंकों का एकीकरण अथवा विलय जरुरी है। इससे लगता है कि बैंकों का लाभ बड़े पूंजीपतियों तक सीमित करने का काम शुरु है। जिन बैंक शाखाओं को खत्म किया गया अथवा खत्म किया जा रहा है। उनमें प्रधानमंत्री जनधन योजना खातों में जीरो बैलेंस का छलावा देकर बाद में रुपये जमा कराये गये तथा नियमित खाता चालू न रख पाने यानी प्रतिमाह रुपये जमा न कर पाने वालों में से बहुत से लोगों के पैसे बैंकों ने काट लिए। शाखाओं का अस्तित्व खत्म होने से लाखों गरीबों की खून कमाई के पैसे फंस गये।

नोटबंदी और जनधन योजना खाली होती बैंकों में पैसा लाने की योजनायें थीं। इनके द्वारा बैंकों ने आम आदमी के पैसे को जबरदस्ती बैंक बैलेंस सुधार के लिए इस्तेमाल किया लेकिन बैंकों में घोटाले बड़े स्तर पर बड़े लोगों द्वारा किये गये जिनकी भरपायी गरीबों की जेब से नहीं हो सकी। एक-एक कर बैंकों का दम निकलना शुरु होता गया और हजारों शाखाओं का पांच साल में अस्तित्व समाप्त हो गया इससे बैंकों पर विश्वास कम होता जा रहा है। देश में इस वजह से लोगों की क्रय शक्ति घटती जा रही है।

इस बात का भी भरोसा नहीं हो पा रहा कि सरकार आगे स्थिति संभाल पायेगी क्योंकि तमाम सत्ताधीश अपनी ताकत कुर्सी दौड़ में खर्च कर रहे हैं।

-जी.एस. चाहल.