सपा के पास कई ऐसे नेता हैं जिन्हें मौलाना जावेद आब्दी से अधिक सम्मान दिया जाता है.
उत्तर प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल सपा और बसपा, भाजपा के खिलाफ जनमत को भरोसा दिलाने में सफल नहीं हो पा रहे। प्रदेश में सात विधान सभा सीटों पर हुए उपचुनावों के परिणामों से इस धारणा की पुष्टि हुई है। परिणाम 2017 के परिणामों को दोहरा रहे हैं। जब छह सीटें भाजपा और एक सपा के खाते में गई थी।
अमरोहा जनपद की सीट दोनों बार यानी 2017 और 2020 में पार्टी हाइकमान की अदूरदर्शिता, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के मौ. जावेद आब्दी से किसी गोपनीय लगाव और स्थानीय प्रभावशाली और पुराने नेताओं की मंशा को दरकिनार करने की वजह से गंवानी पड़ी। इस सीट पर यदि सपा किसी लोकप्रिय नेता को मैदान में उतारती तो 2012 की तरह 2017 और 2020 में भी सपा का ही कब्जा होता। सपा के पास कई ऐसे नेता हैं जिन्हें मौलाना जावेद आब्दी से अधिक सम्मान दिया जाता है। ऐसे पुराने नेताओं की वजह से ही सपा को भारी भरकम वोट मिले। मौलाना की चाल चरित्र और चेहरे की चर्चायें उस समय से प्रचलित हैं जब उनका महिला स्कैंडल में नाम आया था। अखिलेश यादव के कितने चहेते हैं, इसी से पता चल जाता है कि उन्हें राज्यमंत्री के दर्जे से नवाजा, क्षेत्र के पुराने चेहरों को दरकिनार कर उम्मीदवार बनाया। क्या हुआ? झोली की ओर आती सीट विरोधी पक्ष के हाथ चली गयी। कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है लेकिन अखिलेश यादव पर यह उक्ति उल्टी सिद्ध हुई यानी दूध से जलने के बावजूद उन्होंने फिर उसी में घूंट मार दी। इस बार का जला उन्हें 2022 तक याद रहा तो ठीक है नहीं तो नैया डूबोने को उनका दोस्त मानने वाला नहीं।
सपा के कई कर्मठ कार्यकर्ता मानते हैं कि 2017 में सिटिंग विधायक अशफाक खां का टिकट काटना भी गलत था जबकि इस बार पूर्व मंत्री स्व. चन्द्रपाल सिंह के बेटे सरजीत सिंह को मैदान में उतारा जाता तो वे भाजपा को मजबूत टक्कर देते। कई नेता और कार्यकर्ता यह चाहते भी थे। इसके लिए महबूब अली और कमाल अख्तर के खेमे से भी आवाज़ें आयी थीं। लेकिन अखिलेश यादव की अंतरंगता मौलाना से गहरी होने की वजह से खुलकर कोई सामने नहीं आया। उधर सरजीत सिंह स्वयं भी आखिर तक इसके लिए खुद को तैयार किए रहे।
दरसअल कृषि बिलों का इस क्षेत्र के किसानों में जबर्दस्त विरोध है। किसान संगठनों पर सरजीत सिंह का खासा प्रभाव है। किसान मतदाता ही यहां निर्णायक भी हैं। यदि आब्दी की जगह सपा कोई अन्य मुस्लिम चेहरा मैदान में होता तो यहां के कृषक वर्ग की बड़ी संख्या सपा को भाजपा के खिलाफ मतदान को तैयार थी। यदि यहां से सरजीत सिंह सपा उम्मीदवार होते तब भी सपा भाजपा पर भारी पड़ती। सिंह का नाम कुछ लोगों की इस राय से रद्द किया गया कि बसपा से फुरकान अहमद के कारण बहुसंख्यक मुस्लिम मतदाता कहीं उधर न चले जायें।
राहुल कौशिक, सरजीत सिंह, कमाल अख्तर, डॉ. जितेन्द्र यादव और सकीना बेगम कई ऐसे नाम हैं, जिनमें से किसी को भी मैदान में उतारा जाता तो वे मौलाना से कहीं अधिक बेहतर प्रदर्शन करते और नौगावां सीट सपा के खाते में होती। यह विचार सपा के अधिकांश कार्यकर्ताओं का है।
उनक मानना है कि एक या उपचुनाव की सभी सातों सीटों की जय—पराजय से सरकार की सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था। लेकिन यदि एक सीट भी भाजपा से छिन जाती तो उससे यह संदेश जाता कि लोगों में सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ रही है। सरकार भी उससे सबक लेती और उसके नेता आत्ममंथन को बाध्य होते। चुनावी परिणामों में यथास्थिति से यह सिद्ध हो गया है कि सरकार के कामकाज से जनता सहमत है उसमें बदलाव की जरुरत नहीं। यदि किसी सख्त कदम की जरुरत होगी तो सरकार बेझिझक उठायेगी।
-जी.एस. चाहल