परिवार और बच्चों का दायित्व वहन न कर पाने वाले लोग अविवाहित रहना चाहते हैं। वे इसे एक तरह का झंझट और स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं। इसी तरह के लोग सार्वजनिक जीवन में किसी पद पर बैठते हैं तो पारिवारिक जन समूहों के साथ न तो न्याय कर पाते हैं और न ही उनसे जुड़े संवेदनशील मुद्दों को महसूस कर पाते हैं लिहाजा उनका सामाजिक जीवन कभी भी उदार नहीं रहता।
परिवार का पालन पोषण करने वाला व्यक्ति अथवा महिला पारिवारिक दायित्व और परिवारों के सुख-दुख तथा जरुरतों को अच्छी तरह समझ पाता है। साथ ही उनके समाधान और पूर्ति के प्रति हमेशा संकल्पबद्धता के साथ काम करता है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही परंपरा रही है कि ऋषि-मुनि भी गृहस्थ धर्म में बंधकर जीवन जीते थे। विश्वमामित्र, वसिष्ठ, दुर्वासा, कण्व से लेकर भक्तिकालीन संत कबीर, गुरु नानक, रविदास आदि सभी गृहस्थ थे।
साधु संतों को छोड़िए आज तो देश के प्रधानमंत्री और सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री दोनों ही गृहस्थ धर्म से दूर हैं। परिवार से दोनों का कोई नाता नहीं। परिवार वालों को बार-बार सार्वजनिक मंचों से फटकार लगाते रहते हैं। परिवारवाद को जमकर कोसते हैं। दूसरी ओर परिवार वालों से ही वोट मांगने निकलते हैं। कुर्सी इन्हें इतनी प्यारी है कि परिवारों के बीच हाथ जोड़कर सत्ता के लिए मतदान की विनय करते नहीं अघाते। उन्हें रिझाने का पूरा प्रयास करते हैं। परिवारवाद की बुराई और परिवार वालों के वोटों से प्यार धन्य हैं हमारे परिवारहीन नेता।
परिवार वालों के खिलाफ भाषण देने वालों को परिवार वाले यानी गृहस्थ ही कमाकर देते हैं। ब्रह्मचार्य और आजीवन अविवाहित रहने वाले, खाने-पीने के लिए आखिर गृहस्थों के द्वार पर भोजन समेत सभी जरुरतों के लिए दस्तक देते देखे गये हैं। साधु संत भी भोजन अन्न के लिए गृहस्थों को द्वार-द्वार हाथ फैलाते देखे गये हैं। गृहस्थ हमेशा दाता रहा है और दाराविहीन अर्द्ध पुरुष हमेशा मांगने वाला। नारी और परिवार के बगैर पुरुष अधूरा है। परिवारवाद को कोसने वालों को परिवार वालों के वोटों से प्यार क्यों?
-जी.एस. चाहल.