केन्द्र और राज्य सरकारें कोविड महामारी के दूसरे बड़े हमले में भी प्यास में कुआं खोदने की नीति पर ही चल रही हैं.
कोरोना ने जहां बड़ी-बड़ी हस्तियों को चपेट में लेकर अपनी ताकत का इंसान को अहसास कराया है वहीं इसने सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल कर रख दी है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपने चार साल के कार्यकाल में स्वास्थ्य क्षेत्र की जिस प्रकार उपेक्षा की है, उसका सच सबके सामने आ गया है। ग्रामांचल में जहां प्रदेश की सत्तर फीसदी आबादी निवास करती है, वहां की स्वास्थ्य सेवायें बीते चार साल में बद से बदतर होती गयी हैं। ग्रामांचलों में सरकार अस्पतालों की इमारतें खड़ी हैं। लेकिन पिछले चार साल में राज्य या केन्द्र सरकार जिसे डबल इंजन की सरकारी कहा जाता है की ओर से न तो चिकित्सकों की भर्ती की गयी और न ही दवाएं भेजी गयीं। जरुरी चिकित्सा उपकरणों का ही क्या होगा जब कोई उन्हें चलाने वाला ही नहीं। केन्द्र और राज्य सरकारें कोविड महामारी के दूसरे बड़े हमले में भी प्यास में कुआं खोदने की नीति पर ही चल रही हैं।
कोविड नई वैश्विक महामारी है। उसका निदान बड़ी चुनौती है लेकिन वर्षों से चली आ रही बीमारियों के इलाज की दवायें और चिकित्सकों का तो प्रबंध होना ही चाहिए था। हमारे प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की चिकित्सा से प्रदेश सरकार ने मुंह मोड़ रखा है। अधिकांश प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में लोगों ने उपले, ईंधन, भूसा और पशु चारा भर रखा है। खिड़कियों के शीशे तक तोड़ दिए। इमारतें बनने के बाद उधर कोई झांकने तक नहीं आया। कई अस्पतालों की इमारतें सरकण्डों और दूसरे घास के जंगलों से घिरे खड़े हैं।
राज्य सरकार और उसके हाथ-पैर माने जाने वाले प्रशासनिक अफसर सब कुछ जानते हैं। वे सरकार को समय-समय पर जमीनी हकीकत से अवगत भी कराते हैं। मूलभूत आवश्यकताओं में स्वास्थ्य इंसान की सबसे जरुरी आवश्यकता है। राज्य सरकार को अस्पतालों के लिए इन भवनों में सबसे पहले चिकित्सक और दवाएं उपलब्ध करानी चाहिए थी। उसी के साथ जरुरी स्टाफ तथा डॉक्टरी उपकरण भी इन अस्पतालों में लाए जाने चाहिए थे। यह ऐसा काम था जिसके लिए लगातार धन की जरुरत थी। दवाएं केन्द्र के बजट से पहुंचती हैं जो नहीं पहुंच रहीं। चिकित्सकों, उनके सहायकों, फार्मेसिस्ट, ए.एन.एम. आदि तमाम कर्मचारियों को मासिक वेतन दिया जाता है। लगता है सरकार ने खर्च से बचने के लिए सीधा मार्ग चुना कि ग्रामीण अस्पतालों में चिकित्सक और दूसरा स्टाफ भर्ती ही मत करो, दवाएं और दूसरे सामान का वहां फिर उपयोग ही क्या होगा। स्वास्थ्य के लिए गांवों को मिलने वाला धन कहां गया? कोई पूछने वाला नहीं, पूछोगे भी तो कोई जवाब ही नहीं मिलने वाला।
सरकारी लापरवाही और गैजिम्मेदारी की वजह से राज्य के सैकड़ों अस्पताल ग्रामांचलों में भुतहा इमारतों में तब्दील हो चुके। इनमें चिकित्सकों प्रशिक्षित स्टाफ की जो जरुरत है। उसे चार साल से पूरा नहीं किया गया। जरुरत पड़ने पर आपातकाल में स्टाफ कहां से लाया जायेगा? क्या हर बार कुआं खोदकर पानी पीने की तर्ज पर काम होगा? चिकित्सक स्टाफ को प्रशिक्षित करने में वर्षों लगते हैं। यह तुरंत नहीं होगा।
चिकित्सक, स्टाफ तथा दवाओं के अभाव में कोविड के अलावा जो मरीज थे वे यहां इलाज नहीं करा सके जबकि शहरी अस्पतालों में कोविड मरीजों के अलावा दूसरों का इलाज महीनों तक नहीं हुआ। वहां भी चिकित्सकों तथा शेष स्टाफ की कमी है। ऐसे में केवल कोविड से ही मौतें नहीं हुईं बल्कि चिकित्सा और दवाएं के अभाव में दूसरे मरीज भी मौत के मुंह में चले गये जिन्हें समय से इलाज और दवाओं से बचाया जा सकता था। लेकिन चार वर्षों से लगातार ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं से उदासीन राज्य सरकार इस ओर ध्यान देती तभी यह संभव था।
ग्रामांचलों में भुतहा बन चुकी अस्पतालों की इमारतों को तमाम स्वास्थ्य सेवाओं से लैस कर चिकित्सा स्टाफ नियुक्त करने की जरुरत है। क्या सरकार में यह सब करने की क्षमता और योग्यता है? स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सरकार बिल्कुल विफल सिद्ध हुई है।
-जी.एस. चाहल.