कभी सिन्धु नदी के किनारे हिन्दुकुश पर्वत से लेकर अरब सागर तक बसे बहादुर, कृषि और पशुपालन कार्य में निपुण, इस्लाम धर्म में सबसे पहले पदार्पण करने वाले हजरत नूह के पुत्र यासफ की औलाद भारी संख्या में आबाद थी। आज यही मेव आजाद भारत के मेवात क्षेत्र के नूह शहर के आसपास सिमट कर रह गये हैं। वैसे भारतीय खित्ते से रंगून तक करोड़ों में इनकी आबादी मौजूद है।
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मौहम्मद साहब के समय से ही यह कौम इस्लाम में दीक्षित होनी शुरु हो गयी थी। जिसे बाद में इस्लाम के कई दर्वेशों ने मजबूती के साथ इस्लाम में दाखिल किया। वतन से बेपनाह मोहब्बत और ईमान का आधा हिस्सा समझने वाले इन लोगों में तब्लीगी जमात ने सांस्कृतिक बदलाव के लिए देश-विदेश में जमकर काम किया है। हजरत निजामुद्दीन मरकज इसका सबूत है। इस्लाम में शामिल इन मेवातियों ने भारत में मुगल शासन के दौरान स्थानीय लोगों के साथ मिलकर मुगलों का जमकर विरोध किया। जिसकी बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। सुल्तान बलबन ने अपनी फौज से मौत के घाट इनमें से हजारों को उतारकर, लाशें यमुना में फिकवा दीं। इतिहास गवाह है, इससे यमुना का जल लाल हो गया था। दिल्ली के पास के मेवात इलाके में आग लगवा कर आगरा तक के लोगों को उजाड़ कर बरबाद कर दिया। भारी खून-खराबे के बावजूद मेवों ने हार नहीं मानी। यह संघर्ष पूरे मुगलकाल तक चलता रहा।
सन् 1526 में जब खुरासान से बाबर ने भारत पर हमला किया तो पानीपत के मैदान में भारतीय देशभक्तों के साथ उसका डटकर मुकाबला किया। वे सफल नहीं हो सके और बाबर दिल्ली पर कब्जा कर भारत का शासक बन बैठा। इसके बाद आगरा के पास खनवा के मैदान में राज्य विस्तार में फिर मेव बहादुरों से बाबर की सेना का आमना-सामना हुआ जिसमें हसन खां मेवाती के सामने बाबर की सेना के छक्के छूट गए। महाराणा सांगा के साथियों में फूट पड़ने से हसन खां मेवाती और राण सांगा की पराजय हुई।
इसके बाद मेवातियों पर बाबर के जुल्म बढ़ गए। उन्हें काफिर और खुदापरस्ती में रोड़ा बताकर शासन-सत्ता तथा इल्म से दूर रखने का शाही फरमान जारी किया गया। इस आदेश को तमाम मुगल बादशाहों ने अंत तक जारी रखा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी लिखते हैं कि मेव-मेवाती कभी शिवाजी की सेना में भर्ती होकर विदेशी शासकों से लोहा लेते रहे तो कभी लूट-पाट कर बगावत को अंजाम देते रहे। इस तरह की बगावतों की वजह से मुगलकाल में दिल्ली के दरवाजे शाम ढलते ही बंद कर दिए जाते थे। इस बहादुर कौम का अधिकांश इतिहास गायब है।
अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को सत्ता से बेदखल कर जब रंगून में भेज दिल्ली पर अंग्रेजों ने कब्जा किया। उस समय झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के सेनानायक बनकर गौस मोहम्मद खां अंग्रेजों से अंतिम सांस तक लड़ा। अंग्रेजों ने भी मुगलों की तरह मेवातियों पर जुल्म किए। पूरे मेवात को उजाड़ा लेकिन बहादुर मेवातियों ने उनके सामने हथियार नहीं डाले। इस्लाम में सबसे पहले शामिल होने वाले और अपने वतन के लिए जान तक कुर्बान करने वाले से बहादुर मेवाती सुल्तानों, बादशाहों, अंग्रेजों और भारतीय बहुसंख्यक समुदाय में हमेशा उपेक्षित ही रहे। बंटवारे के समय भी उन्होंने भारत की मिट्टी से ही जुड़ा रहना स्वीकारा, फिर भी उनके शुद्धिकरण के नाम पर उनपर जुल्म ढाए गए। हरियाणा और राजस्थान के मेवात में कई जगह मेवातियों पर अत्याचार की घटनायें हुईं। 13 दिसंबर 1947 को हरियाणा के घासेड़ा कस्बे में महात्मा गांधी ने सभा करके लोगों को समझाया और कहा कि मेव देशभक्ति में हमारे देश की मेरुदण्ड की तरह हैं। भूदान नेता बिनोबा भावे को भी यहां हस्तक्षेप कर शांति बहाली के लिए आना पड़ा। आज भी मेवों के खिलाफ विरोध बंद नहीं हुआ। भेदभाव जारी है। आपातकाल में भी उन्हें सताया गया।
सल्तनत काल हो, या अंग्रेजी शासन दिल्ली के आसपास बसे मेवाती हमेशा वतनप्रेमी, साहसिक, धाकड़, और मनमौजी रहे हैं। दोनों सरकारें इनसे भय खाती थीं। इन्हें नेस्तनाबूद करने के लिए उन्होंने पूरी ताकत लगा दी लेकिन वे इस बहादुर वतनपरस्त बिरादरी को काबू नहीं कर पाए। आजाद भारत के राष्ट्रवादी सदरुद्दीन तथा सआदत खां की शहादत पर खामोश है जबकि मस्तानी गूजरी, फूल कुंवर, जोधाबाई और दिल्ली के चांदी चौक की बेगम इतिहास बन गयीं हैं। देशभक्तों पर चुप्पी समझ से परे है। राष्ट्रीय एकता की मजबूती के लिए हकीकत सामने आना जरुरी है।
-हाजी अब्दुल सलाम.